Monday, May 18, 2015

बॉम्बे वेलवेट : "आपरेशन सक्सेसफुल, लेकिन पेशेंट डेड"|



अनुराग कश्यप
अनुराग कश्यप वर्तमान हिंदी सिनेमा की एक महत्त्वपूर्ण हस्ती है। ९० के दशक में फिल्म "सत्या" के इस संवाद लेखक ने विगत १५ वर्षों में ईर्ष्या योग्य ऊंचाइयां छुईं हैं और आज स्वयं को एक बड़े नाम के रूप में स्थपित किया है। आज की युवा पीढ़ी के अनुराग आदर्श हैं। मेरे कालेज में ही विद्यार्थी अब हिंदी फिल्म देखते हैं और जो देखते हैं उनमे अधिकांश से अनुराग कश्यप का नाम जुड़ा होता है। आप अनुराग की फ़िल्मों से असहमत हो सकते हैं मगर उसे नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते हैं।
आज अनुराग जिस मुकाम पर पहुंचे हैं, वहां पहुंचने के लिए उन्होंने अथक मेहनत की है और वे इस मुकाम के पुरे हक़दार हैं। लेकिन मेरा मत है कि इस अथक मेहनत के अलावा अनुराग ने साम - दाम, दंड-भेद का भी बहुत अच्छा उपयोग किया है; खैर उस बात पर कभी और चर्चा करेंगे|
अनुराग की पहली फिल्म "पांच" जो कि कुछ कारणों से प्रदर्शित नहीं हो पाई थी, भी मैंने DVD पर देखी है, जो स्वयं अनुराग ने ही दिखाई थी। यहां उल्लेख करना लाज़मी है कि जब मैं FTII में तृतीय वर्ष में था तब अनुराग मेरी बैच के निर्देशन के छात्रों की पटकथा लेखन की वर्कशॉप लेने आये थे। वो दो सप्ताह उन्होंने हम छात्रों के बीच के बीच ही बिताये थे। उन दो सप्ताह में हमने कई सारी भिन्न-भिन्न फिल्में देखी और उनपे बहुत चर्चाएं की। कुल मिला कर वो एक अविस्मरणीय वर्कशॉप थी। हम छात्रों ने अनुराग के ज्ञान और अनुभव से बहुत कुछ ग्रहण किया था। अनुराग ने भी हम लोगों से कुछ लिया ही था। उनकी पिछली दो फिल्मों "गैंग्स ऑफ़ वासेपुर " और "अग्ली" की संपादक श्वेता व्यंकट मेरी सहपाठिन हैं। "ब्लेक फ्राइडे" में मेरे दूसरे सहपाठी गार्गेय त्रिवेदी ने द्वितीय यूनिट छायांकन किया था। ब्लेक फ्राइडे के बाद की समस्त फिल्मों के छायाकार राजीव रवि भी FTII के मेरे सीनियर हैं।
राजीव रवि
उस वर्कशॉप में एक और बात हुई। हमारी जूनियर बैच में थानिकाचलम नामक एक छात्र छायांकन के विद्यार्थी थे। अनुराग से मुलाक़ात के बाद उनको लगा कि वे छायांकन से बेहतर निर्देशन कर सकते हैं। अब चूँकि FTII में आप अपना विषय परिवर्तित नहीं कर सकते हैं तो थानिकाचलम ने FTII त्याग दिया था। उसके बाद हम सब अपने-अपने जीवन में व्यस्त हो गए और उसे भूल भी गए। लेकिन अभी "बॉम्बे वेलवेट" की पब्लिसिटी में उसके लेखकद्वय वासन-थानी का साक्षात्कार पढ़ा तो सुखद आश्चर्य हुआ। जी हाँ ये थानी वही थानिकाचलम ही है। इस फिल्म में जिसने करण जौहर के ड्राइवर का पात्र अभिनीत किया है वो थानी ही है।
आप भी इस छोटी सी कहानी से जीवन के उतार - चढाव और फिल्म उद्योग के नाटकीय चरित्र को समझ ही गए होंगे।
तो अब हम आते आते हैं आज की फिल्म बॉम्बे वेलवेट पर।
ये फिल्म ज्ञान प्रकाश की पुस्तक "मुंबई फेब्ल्स" पर आधारित है। उस पुस्तक विषय सन ५०-७० के दशक के बम्बई में प्रचलित पश्चिमी जैज़ संगीत का उत्थान - पतन और साथ में बम्बई के हो रहे अंधाधुंध विकास की गाथा है। ऐसा विकास जिसने धनवान को को और धनवान एवं गरीब को और गरीब बना दिया । नि:संदेह वह समय बंबई के इतिहास का बड़ा महत्त्वपूर्ण अंश है और वह अधिकाधिक लोगों तक पहुंचना चाहिए।
यह निर्विवाद तथ्य है कि अतीत में बसी हुई कहानी पर फिल्म बनाना बहुत महंगा काम है। उस समय को पूरी ईमानदारी से चित्रित करने के लिए उस दौर के मकान, गाड़ी-घोड़े, वस्तुएं, चाल- चलन, कपड़े-लत्ते इत्यादि सबकुछ नए सिरे बनाना पड़ता है जो कि सस्ता नहीं है। अब वर्ष २०१३-१४ में वर्ष १९५०-७० का मुंबई दिखाने के लिए इस फिल्म के निर्माता को श्रीलंका जाकर २०० एकड़ में फैला वृहद सेट लगाना पड़ा। इस बारे में अधिक जानने के लिए ये विडिओ देखें:
https://www.youtube.com/watch?v=j8vo1b1YyLw
है न ये एक साहसी कार्य ?
खैर अनुराग हमेशा से ही साहसी फ़िल्मकार रहे हैं। उन्होंने हमेशा अपने सिद्धांतों और यक़ीन पर आधारित लीग से हट कर फिल्म बनाई है। उन्होंने कभी फिल्म के हिट - फ्लॉप होने की चिंता नहीं की। और इसीलिए अनुराग की हर फिल्म देखना आवश्यक होता है।
सो "मुंबई फेब्ल्स" को और रसदार बनाने के लिये अनुराग ने उसमें एक प्रेम कथा और डाली, जानी बलराज और रोसी नरोन्हा की। शायद ये इसलिए भी किया हो क्योंकि फिल्म की अत्यधिक लागत को वसूलने के लिए बड़े सितारे की ज़रूरत लगी हो और प्रेम कथा में सितारे को लाना आसान होता है । नतीजा अनुराग को रणबीर कपूर का साथ मिल गया। फिर बाकी चींज़े अपने-आप लाईन से लग जाती हैं।

समय बड़ा बलवान होता है। इसका इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा कि करण जौहर जिनको एक समय अनुराग ने काफी अपशब्द कहे थे, उन्होंने जीवन में पहली बार अभिनय किया है इस फिल्म के मुख्य खलनायक खम्बाटा के पात्र का।
अमित त्रिवेदी
अमिताभ भट्टाचार्य
तकनीकी रूप से अनुराग बेहद परिपक्व निर्देशक हैं । यह फिल्म पुन
: ये बात साबित करती है। दृश्यों पर उनकी पकड़ कमाल की है। फिल्म का हर अभिनेता चाहे कितने छोटे से रोल में हो, अपनी छाप छोड़ जाता है। अनुराग की टीम के सभी सदस्य अपने क्षेत्र के धुरंधर हैं। छायाकार राजीव रवि, संगीतकार अमित त्रिवेदी, गीतकार अमिताभ भट्टाचार्य, साउंड डिज़ाइनर कुणाल शर्मा, कास्ट्यूम डिज़ाइनर निहारिका खान, प्रोडक्शन डिज़ाइनर सोनल सावंत इत्यादि सभी कई बड़ी फिल्मों से जुड़े हुए हैं । और सोने पे सुहागा हैं इस फिल्म की सम्पादिका थेल्मा शुंमेकर और प्रेरणा सहगल।


थेलमा शुंमेकर

थेल्मा शुंमेकर वर्तमान हॉलीवुड की सबसे प्रसिद्ध और वरिष्ठ सम्पादिका हैं जिन्होंने विख्यात निर्देशक मार्टिन स्कोर्सेसी की हर फिल्म संपादित की है। वे अब तक ऑस्कर समेत कई पुरुस्कारों से नवाज़ी जा चुकी है। अब चूँकि थेल्मा जी हॉलीवुड में स्थापित है और हिंदी नहीं जानती हैं; शायद इसलिए फिल्म में एक नयी और युवा सम्पादिका प्रेरणा सहगल को लिया गया होगा ताकि वो थेल्मा जी के मार्गदर्शन में सम्पादन कर सके।
प्रेरणा सहगल
प्रेरणा वर्ष २००७-०८ की FTII स्नातक हैं और ये उनकी पहली बड़ी फिल्म है। जिस तरह से यह फिल्म आपको बांधे रखती है, उसके लिए इन संपादिकाओं को श्रेय देना वाजिब है।
फिल्म का अन्य उल्लेखनीय पहलु है इसका प्रोडक्शन डिज़ाइन।
सोनल सावंत
सोनल सावंत जो इससे प
[पहले "काई पो छे" फिल्म कर चुकी हैं, ने इस फिल्म में बहुत जोरदार काम किया है। कहीं भी यह महसूस नहीं होता है कि हम जो देख रहे हैं वो उस दौर का नहीं है। इसमें सोनल का साथ कास्ट्यूम डिज़ाइनर निहारिका खान ने बखूबी दिया है।
उस दौर को मुक़म्मल बनाने में फिल्म के गीत-संगीत का भी उल्लेखनीय योगदान है। उस दौर में बम्बई में कई जगहों में गोवन ईसाइयों के द्वारा जैज़ संगीत बजाय जाता था। वे सब बड़े आला दर्ज़े के कलाकार हुआ करते थे जिनका उस समय की कई फिल्मों में भी महत्त्वपूर्ण योगदान है। लेकिन बदलते समय के साथ पश्चिमी सभ्यता के बढ़ते विरोध ने इन सभी कलाकारों को गुमनामी के अँधेरे में धकेल दिया । तब प्रचलित जैज़ संगीत को इस फिल्म में बखूबी प्रस्तुत किया गया है जिसके लिए अमिताभ भट्टाचार्य के गीत और अमित त्रिवेदी के संगीत को श्रेय है। फिल्म का पार्श्व संगीत भी बहुत सटीक है जो कि अमित त्रिवेदी ने ही दिया है।
अभिनय में सभी कलाकारों ने एक से बढ़ कर एक अभिनय किया है चाहे वो रणबीर हो, अनुष्का हो, मनीष चौधरी, के. के. या इमाद शाह। लेकिन मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया करण जौहर ने।
वे इतने काबिल अभिनेता होंगे, सोचा न था। एक सीन में रणबीर से कर अपनी हँसी रोकने की कोशिश कर रहे हैं , उस सीन को देख आप मेरी बात से सहमत हो जाएंगे।
डायलॉग लेखन में अनुराग का कोई सानी नहीं है, ये फिल्म इस बात को पुनर्स्थापित करती है। बानगी देखिये "तुमने मेरी ईमानदारी कमाई नहीं, खरीदी थी और कोई भी खरीदी हुई चीज़ कब तक चल सकती है "
ये सब पहलू इस फिल्म को देखने योग्य बनाते हैं। मध्यांतर तक तो आप इतने बंधे रहते हैं कि सवा घंटा निकलने का पता ही नहीं चलता है। लेकिन मध्यांतर अपरान्त लगने लगता है कहीं कुछ गड़बड़ हो गई है|
और ये गड़बड़ हो गयी है पटकथा लेखन में। शुरुआत में घटनाएँ इस तेजी से घटित होती हैं कि आपको सोचने का समय ही नहीं मिलता है लेकिन जब कथानक थोड़ा थम जाता है और आप जब घटनाक्रम पर विचार करते हैं तो वह सब अविश्वसनीय लगता है। मैं ऐसी ही कुछ त्रुटियाँ आपको बतलाता हूँ :
  • फिल्म में के. के. का पात्र बड़ा ही काबिल और ईमानदार पुलिस अधिकारी बताया गया है । उसकी नज़र से कहीं कुछ नहीं छिपा हुआ है। वह जानी बलराज को उसकी मुफलिसी के दिनों से जानता है उसे तस्करी करते हुए भी देख लेता है। वह जानी के अकस्मात उत्थान को भी बारीकी से देख रहा है। लेकिन फिर भी शहर के कुछ नामचीन लोगों के गायब हो जाने पर (जिनका क़त्ल जानी ने किया था) उसे शक़ नहीं होता है। पुलिस को बड़ी सहूलियत से उपयोग किया गया है। जब लेखकोंं ने चाहा पुलिस को सुला दिया और जब चाहा एकदम से कड़क और चुस्त बना दिय । भाई आख़िरकार उस पुलिस का असल चरित्र क्या था?
  • जानी बलराज जो कि फिल्म का मुख्य पात्र है, वह शुरू से ही बुरा दिखाया गया है । सिवाय इसके कि उसने जीवन में कई ठोकरें खायी हैं, आपके पास उससे सहानुभूति रखने का कोई कारण नहीं है। वह केवल मूर्खता की हद तक दुस्साहसी युवक है जो कि अपने आवेश का गुलाम है।
  • इसी प्रकार रोज़ी भी गोवा से एक क़त्ल कर भागी हुई है, लेकिन उसे भी कभी पुलिस से कोई परेशानी नहीं होती है।
  • जानी महाराष्ट्र सरकार के एक मंत्री की लेकर उसे ब्लेकमेल करता है । दो सामान्य से अख़बार के संपादक बंबई में हो रहे सब काले-सफेद से वाक़िफ़ हैं और उसका संचालन कर रहे हैं लेकिन मंत्रीजी अपने ब्लेकमेलर को पकड़ पाने में अक्षम हैं । आपको नहीं लगती ये बात अविश्वसनीय?
  • जानी की "बिग शॉट" बनने की ज़िद किसी छोटे बच्चे की चाँद चाहने समान लगती है क्योंकि उसके चरित्र में कभी भी बिग शॉट बनने वाली कोई बात नहीं लगती है। वह सदैव खम्बाटा के सामने प्यादा ही दिखता है और इसलिए मुर्ख लगता है।
  • एक प्रख्यात मजदुर नेता को फ़ॉकलैंड रोड जैसे भीड़ भरे इलाक़े में क़ैद रखा जाता है और किसी को कई खबर नहीं होती है।
और भी ऐसी कई बातें हैं जिस कारण फिल्म अविश्वसनीय लगती है और आप फ़िल्मकार को कहना चाहते हैं कि "भइया इतना बड़ा वाला मुर्ख भी न समझो हमें "
और बस इसी बात के कारण ये फिल्म का हश्र भी अनुराग की अन्य फिल्मों जैसा ही होगा । एक फिल्म जो कि क्लासिक हो सकती थी लेकिन ठीक ही बन पाई।
सारे पहलु सही बावजूद फिल्म गलत हो गयी । इस पर मेरे एक मित्र ने बड़ी सटीक बात कही है "आपरेशन सक्सेसफुल, लेकिन पेशेंट डेड"|