Wednesday, October 5, 2016

NERO’s GUEST by P. SAINATH : झंझोड़ कर रख देने वाली फ़िल्म

नमस्कार मित्रों, आज फ़िर कई दिनों के बाद से आपसे मुख़ातिब होने जा रहा हूँ। बहुत दिनों से मैं इसी पसोपेश में था कि आखिर आप लोगों से क्या जानकारी साझा करूं? नई प्रदर्शित फ़िल्मों की समीक्षा मुझसे पहले आप लोगों तक कई अन्य लोग पहुंचा ही देते हैं। इसीलिए आपमें से कई मेरी समीक्षा शायद पते भी नहीं होंगे। लेकिन कुछैक मित्र हैं जो कि मेरी समीक्षा न सिर्फ़ पते हैं बल्कि मुझे उसपर अपनी प्रतिक्रिया से वाकिफ़ भी कराते रहते हैं ।

आप लोग भी इधर महसूस कर ही रहे होंगे कि विगत कुछ वर्षों से हिन्दी फ़िल्मों की गुणवत्ता सतत गिरती ही जा रही है। इसके कई कारण हैं और इस विषय पर मैं फ़िर कभी लिखूँगा। यहां ये ज़िक्र करने से मेरा मंतव्य केवल इतना बताना था कि इस कारण से मैंने हिन्दी फ़िल्में देखना बहुत ही कम कर दिया है। अब मैं हिन्दी फ़िल्म देखता तभी हूँ जब उसकि सराहना कुछ विशेष मित्रगण न कर दें। और तब तक उस फ़िल्म की समीक्षा लिखने को बहुत देर हो चुकी होती है।

पर मैं आप लोगों को समय समय पर अपने विचार साझा कर बहुत आनन्दित होता हूं और इस तारतम्य को यूं ही कायम भी रखना भी चाहता हूँ । इसलिए कई दिनों की उलझन के बाद मैने ये निर्णय लिया है कि मैं आप लोगों को पहले की भाति फ़िल्म समीक्षा ही भेजूंगा मगर उन फ़िल्मों की जो अमूमन हम थिएटर में देख नहीं पाते हैं और शायद उनकी DVD में हमारी रूचि शायद इसीलिए नहीं होती है क्योंकि उस फ़िल्म के बारे में हम तक कोई जानकारी पहुंच ही नहीं पाती है।

हो सकता है कि मेरी समीक्षा पढकर आपमें से कुछेक उस फ़िल्म की DVD ही खरीद लें।

तो आज मैं जिस फ़िल्म पर प्रकाश डालना चाहता हूं वह एक वृत्तचित्र (documentary film) है – Nero’s Guest by P. Sainath (नीरो के अतिथि द्वारा पी. साईंनाथ)। 
फ़िल्म का YouTube लिन्क नीचे दिया हुआ है:



फ़िल्म पर कुछ लिखने से पहले मैं श्री पी. साईंनाथ का परिचय कराना चाहूंगा। श्री साईंनाथ हमारे देश के वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक हैं। वे “हिन्दू” अखबार के लिए कार्य करते थे। उनकी लिखी एक पुस्तक Everybody loves a Good Drought” (अच्छा सूखा सबको पसंद आता है) बहुत प्रसिद्ध है।  ये पुस्तक पिछले कुछ वर्षों से देश के कुछ भागों में लगातार हो रही किसानों की आत्महत्या के बारे में है। ऐसा कहते हैं कि इस पुस्तक के छपने के बाद ही ये चिंतनीय विषय जन साधारण तक पहुंचा है। इसके पहले ये बात अधिकांश लोगों को पता ही नहीं थी। पूर्व प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह भी इसी पुस्तक के द्वारा इस विषय की गंभीरता समझ पाये थे।


यह फ़िल्म भी एक प्रकार से उसी पुस्तक का अगला अध्याय है। इस फ़िल्म की संपादिका-दिग्दर्शिका हैं सुश्री दीपा भाटिया। दीपा जी वरिष्ठ व ख्यात फ़िल्म संपादिका हैं जिनको कई बडी फ़िल्मों के संपादन का श्रेय जाता है। उनमें उल्लेखनीय है “तारे ज़मीन पर, माय नेम इस खान, स्टेनली का डब्बा, राक आन, स्टूडेन्ट आफ़ द ईयर, काई पो छे” इत्यादि।

यहां यह भी बताना चाहूंगा कि दीपा जी के पति हैं श्री अमोल गुप्ते, जो कि स्वयं फ़िल्म “स्टेनली का डब्बा”, “हवा-हवाई” के निर्देशक एवं “कमीने” के अभिनेता के रूप में प्रख्यात हैं।

जैसा कि उपरोक्त है कि यह फ़िल्म किसानों की आत्महत्या के लिए जिम्मेवार हालात; इसके प्रति समाज, शासन व राजनेताओं के रवैये एवं मृत किसान के परिजनों की परिस्थिति को परिलक्षित करती है। और वह यह कार्य इतने सटीक तरीके से करती है कि दर्शक को झंझोड डालती है। वह अनायास ही अपने आप से यह प्रश्न कर उठता है कि क्या हम, हमारा समाज वाकई विकसित हो रहा है? अगर यह बात सच है कि “जीवन के हैं तीन निशान, रोटी, कपडा और मकान”; तो फ़िर रोटी के सृजक किसान की ऐसी हालत क्यों है? हम विकास की राह पर ये भूलते जा रहे हैं कि इन्सान बिना कपड़े और मकान के कई दिन रह सकता है लेकिन रोटी के बगैर कुछ दिन भी नहीं।

आप सबसे मेरा निवेदन है कि दिये हुए लिन्क पे जाकर इस फ़िल्म को जरूर देखें और उसे ज्यादा से ज्यादा लोगों को दिखाएं ताकि हम अपने जीवन में किसान के योगदान को सराह सकें। 

Monday, May 18, 2015

बॉम्बे वेलवेट : "आपरेशन सक्सेसफुल, लेकिन पेशेंट डेड"|



अनुराग कश्यप
अनुराग कश्यप वर्तमान हिंदी सिनेमा की एक महत्त्वपूर्ण हस्ती है। ९० के दशक में फिल्म "सत्या" के इस संवाद लेखक ने विगत १५ वर्षों में ईर्ष्या योग्य ऊंचाइयां छुईं हैं और आज स्वयं को एक बड़े नाम के रूप में स्थपित किया है। आज की युवा पीढ़ी के अनुराग आदर्श हैं। मेरे कालेज में ही विद्यार्थी अब हिंदी फिल्म देखते हैं और जो देखते हैं उनमे अधिकांश से अनुराग कश्यप का नाम जुड़ा होता है। आप अनुराग की फ़िल्मों से असहमत हो सकते हैं मगर उसे नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते हैं।
आज अनुराग जिस मुकाम पर पहुंचे हैं, वहां पहुंचने के लिए उन्होंने अथक मेहनत की है और वे इस मुकाम के पुरे हक़दार हैं। लेकिन मेरा मत है कि इस अथक मेहनत के अलावा अनुराग ने साम - दाम, दंड-भेद का भी बहुत अच्छा उपयोग किया है; खैर उस बात पर कभी और चर्चा करेंगे|
अनुराग की पहली फिल्म "पांच" जो कि कुछ कारणों से प्रदर्शित नहीं हो पाई थी, भी मैंने DVD पर देखी है, जो स्वयं अनुराग ने ही दिखाई थी। यहां उल्लेख करना लाज़मी है कि जब मैं FTII में तृतीय वर्ष में था तब अनुराग मेरी बैच के निर्देशन के छात्रों की पटकथा लेखन की वर्कशॉप लेने आये थे। वो दो सप्ताह उन्होंने हम छात्रों के बीच के बीच ही बिताये थे। उन दो सप्ताह में हमने कई सारी भिन्न-भिन्न फिल्में देखी और उनपे बहुत चर्चाएं की। कुल मिला कर वो एक अविस्मरणीय वर्कशॉप थी। हम छात्रों ने अनुराग के ज्ञान और अनुभव से बहुत कुछ ग्रहण किया था। अनुराग ने भी हम लोगों से कुछ लिया ही था। उनकी पिछली दो फिल्मों "गैंग्स ऑफ़ वासेपुर " और "अग्ली" की संपादक श्वेता व्यंकट मेरी सहपाठिन हैं। "ब्लेक फ्राइडे" में मेरे दूसरे सहपाठी गार्गेय त्रिवेदी ने द्वितीय यूनिट छायांकन किया था। ब्लेक फ्राइडे के बाद की समस्त फिल्मों के छायाकार राजीव रवि भी FTII के मेरे सीनियर हैं।
राजीव रवि
उस वर्कशॉप में एक और बात हुई। हमारी जूनियर बैच में थानिकाचलम नामक एक छात्र छायांकन के विद्यार्थी थे। अनुराग से मुलाक़ात के बाद उनको लगा कि वे छायांकन से बेहतर निर्देशन कर सकते हैं। अब चूँकि FTII में आप अपना विषय परिवर्तित नहीं कर सकते हैं तो थानिकाचलम ने FTII त्याग दिया था। उसके बाद हम सब अपने-अपने जीवन में व्यस्त हो गए और उसे भूल भी गए। लेकिन अभी "बॉम्बे वेलवेट" की पब्लिसिटी में उसके लेखकद्वय वासन-थानी का साक्षात्कार पढ़ा तो सुखद आश्चर्य हुआ। जी हाँ ये थानी वही थानिकाचलम ही है। इस फिल्म में जिसने करण जौहर के ड्राइवर का पात्र अभिनीत किया है वो थानी ही है।
आप भी इस छोटी सी कहानी से जीवन के उतार - चढाव और फिल्म उद्योग के नाटकीय चरित्र को समझ ही गए होंगे।
तो अब हम आते आते हैं आज की फिल्म बॉम्बे वेलवेट पर।
ये फिल्म ज्ञान प्रकाश की पुस्तक "मुंबई फेब्ल्स" पर आधारित है। उस पुस्तक विषय सन ५०-७० के दशक के बम्बई में प्रचलित पश्चिमी जैज़ संगीत का उत्थान - पतन और साथ में बम्बई के हो रहे अंधाधुंध विकास की गाथा है। ऐसा विकास जिसने धनवान को को और धनवान एवं गरीब को और गरीब बना दिया । नि:संदेह वह समय बंबई के इतिहास का बड़ा महत्त्वपूर्ण अंश है और वह अधिकाधिक लोगों तक पहुंचना चाहिए।
यह निर्विवाद तथ्य है कि अतीत में बसी हुई कहानी पर फिल्म बनाना बहुत महंगा काम है। उस समय को पूरी ईमानदारी से चित्रित करने के लिए उस दौर के मकान, गाड़ी-घोड़े, वस्तुएं, चाल- चलन, कपड़े-लत्ते इत्यादि सबकुछ नए सिरे बनाना पड़ता है जो कि सस्ता नहीं है। अब वर्ष २०१३-१४ में वर्ष १९५०-७० का मुंबई दिखाने के लिए इस फिल्म के निर्माता को श्रीलंका जाकर २०० एकड़ में फैला वृहद सेट लगाना पड़ा। इस बारे में अधिक जानने के लिए ये विडिओ देखें:
https://www.youtube.com/watch?v=j8vo1b1YyLw
है न ये एक साहसी कार्य ?
खैर अनुराग हमेशा से ही साहसी फ़िल्मकार रहे हैं। उन्होंने हमेशा अपने सिद्धांतों और यक़ीन पर आधारित लीग से हट कर फिल्म बनाई है। उन्होंने कभी फिल्म के हिट - फ्लॉप होने की चिंता नहीं की। और इसीलिए अनुराग की हर फिल्म देखना आवश्यक होता है।
सो "मुंबई फेब्ल्स" को और रसदार बनाने के लिये अनुराग ने उसमें एक प्रेम कथा और डाली, जानी बलराज और रोसी नरोन्हा की। शायद ये इसलिए भी किया हो क्योंकि फिल्म की अत्यधिक लागत को वसूलने के लिए बड़े सितारे की ज़रूरत लगी हो और प्रेम कथा में सितारे को लाना आसान होता है । नतीजा अनुराग को रणबीर कपूर का साथ मिल गया। फिर बाकी चींज़े अपने-आप लाईन से लग जाती हैं।

समय बड़ा बलवान होता है। इसका इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा कि करण जौहर जिनको एक समय अनुराग ने काफी अपशब्द कहे थे, उन्होंने जीवन में पहली बार अभिनय किया है इस फिल्म के मुख्य खलनायक खम्बाटा के पात्र का।
अमित त्रिवेदी
अमिताभ भट्टाचार्य
तकनीकी रूप से अनुराग बेहद परिपक्व निर्देशक हैं । यह फिल्म पुन
: ये बात साबित करती है। दृश्यों पर उनकी पकड़ कमाल की है। फिल्म का हर अभिनेता चाहे कितने छोटे से रोल में हो, अपनी छाप छोड़ जाता है। अनुराग की टीम के सभी सदस्य अपने क्षेत्र के धुरंधर हैं। छायाकार राजीव रवि, संगीतकार अमित त्रिवेदी, गीतकार अमिताभ भट्टाचार्य, साउंड डिज़ाइनर कुणाल शर्मा, कास्ट्यूम डिज़ाइनर निहारिका खान, प्रोडक्शन डिज़ाइनर सोनल सावंत इत्यादि सभी कई बड़ी फिल्मों से जुड़े हुए हैं । और सोने पे सुहागा हैं इस फिल्म की सम्पादिका थेल्मा शुंमेकर और प्रेरणा सहगल।


थेलमा शुंमेकर

थेल्मा शुंमेकर वर्तमान हॉलीवुड की सबसे प्रसिद्ध और वरिष्ठ सम्पादिका हैं जिन्होंने विख्यात निर्देशक मार्टिन स्कोर्सेसी की हर फिल्म संपादित की है। वे अब तक ऑस्कर समेत कई पुरुस्कारों से नवाज़ी जा चुकी है। अब चूँकि थेल्मा जी हॉलीवुड में स्थापित है और हिंदी नहीं जानती हैं; शायद इसलिए फिल्म में एक नयी और युवा सम्पादिका प्रेरणा सहगल को लिया गया होगा ताकि वो थेल्मा जी के मार्गदर्शन में सम्पादन कर सके।
प्रेरणा सहगल
प्रेरणा वर्ष २००७-०८ की FTII स्नातक हैं और ये उनकी पहली बड़ी फिल्म है। जिस तरह से यह फिल्म आपको बांधे रखती है, उसके लिए इन संपादिकाओं को श्रेय देना वाजिब है।
फिल्म का अन्य उल्लेखनीय पहलु है इसका प्रोडक्शन डिज़ाइन।
सोनल सावंत
सोनल सावंत जो इससे प
[पहले "काई पो छे" फिल्म कर चुकी हैं, ने इस फिल्म में बहुत जोरदार काम किया है। कहीं भी यह महसूस नहीं होता है कि हम जो देख रहे हैं वो उस दौर का नहीं है। इसमें सोनल का साथ कास्ट्यूम डिज़ाइनर निहारिका खान ने बखूबी दिया है।
उस दौर को मुक़म्मल बनाने में फिल्म के गीत-संगीत का भी उल्लेखनीय योगदान है। उस दौर में बम्बई में कई जगहों में गोवन ईसाइयों के द्वारा जैज़ संगीत बजाय जाता था। वे सब बड़े आला दर्ज़े के कलाकार हुआ करते थे जिनका उस समय की कई फिल्मों में भी महत्त्वपूर्ण योगदान है। लेकिन बदलते समय के साथ पश्चिमी सभ्यता के बढ़ते विरोध ने इन सभी कलाकारों को गुमनामी के अँधेरे में धकेल दिया । तब प्रचलित जैज़ संगीत को इस फिल्म में बखूबी प्रस्तुत किया गया है जिसके लिए अमिताभ भट्टाचार्य के गीत और अमित त्रिवेदी के संगीत को श्रेय है। फिल्म का पार्श्व संगीत भी बहुत सटीक है जो कि अमित त्रिवेदी ने ही दिया है।
अभिनय में सभी कलाकारों ने एक से बढ़ कर एक अभिनय किया है चाहे वो रणबीर हो, अनुष्का हो, मनीष चौधरी, के. के. या इमाद शाह। लेकिन मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया करण जौहर ने।
वे इतने काबिल अभिनेता होंगे, सोचा न था। एक सीन में रणबीर से कर अपनी हँसी रोकने की कोशिश कर रहे हैं , उस सीन को देख आप मेरी बात से सहमत हो जाएंगे।
डायलॉग लेखन में अनुराग का कोई सानी नहीं है, ये फिल्म इस बात को पुनर्स्थापित करती है। बानगी देखिये "तुमने मेरी ईमानदारी कमाई नहीं, खरीदी थी और कोई भी खरीदी हुई चीज़ कब तक चल सकती है "
ये सब पहलू इस फिल्म को देखने योग्य बनाते हैं। मध्यांतर तक तो आप इतने बंधे रहते हैं कि सवा घंटा निकलने का पता ही नहीं चलता है। लेकिन मध्यांतर अपरान्त लगने लगता है कहीं कुछ गड़बड़ हो गई है|
और ये गड़बड़ हो गयी है पटकथा लेखन में। शुरुआत में घटनाएँ इस तेजी से घटित होती हैं कि आपको सोचने का समय ही नहीं मिलता है लेकिन जब कथानक थोड़ा थम जाता है और आप जब घटनाक्रम पर विचार करते हैं तो वह सब अविश्वसनीय लगता है। मैं ऐसी ही कुछ त्रुटियाँ आपको बतलाता हूँ :
  • फिल्म में के. के. का पात्र बड़ा ही काबिल और ईमानदार पुलिस अधिकारी बताया गया है । उसकी नज़र से कहीं कुछ नहीं छिपा हुआ है। वह जानी बलराज को उसकी मुफलिसी के दिनों से जानता है उसे तस्करी करते हुए भी देख लेता है। वह जानी के अकस्मात उत्थान को भी बारीकी से देख रहा है। लेकिन फिर भी शहर के कुछ नामचीन लोगों के गायब हो जाने पर (जिनका क़त्ल जानी ने किया था) उसे शक़ नहीं होता है। पुलिस को बड़ी सहूलियत से उपयोग किया गया है। जब लेखकोंं ने चाहा पुलिस को सुला दिया और जब चाहा एकदम से कड़क और चुस्त बना दिय । भाई आख़िरकार उस पुलिस का असल चरित्र क्या था?
  • जानी बलराज जो कि फिल्म का मुख्य पात्र है, वह शुरू से ही बुरा दिखाया गया है । सिवाय इसके कि उसने जीवन में कई ठोकरें खायी हैं, आपके पास उससे सहानुभूति रखने का कोई कारण नहीं है। वह केवल मूर्खता की हद तक दुस्साहसी युवक है जो कि अपने आवेश का गुलाम है।
  • इसी प्रकार रोज़ी भी गोवा से एक क़त्ल कर भागी हुई है, लेकिन उसे भी कभी पुलिस से कोई परेशानी नहीं होती है।
  • जानी महाराष्ट्र सरकार के एक मंत्री की लेकर उसे ब्लेकमेल करता है । दो सामान्य से अख़बार के संपादक बंबई में हो रहे सब काले-सफेद से वाक़िफ़ हैं और उसका संचालन कर रहे हैं लेकिन मंत्रीजी अपने ब्लेकमेलर को पकड़ पाने में अक्षम हैं । आपको नहीं लगती ये बात अविश्वसनीय?
  • जानी की "बिग शॉट" बनने की ज़िद किसी छोटे बच्चे की चाँद चाहने समान लगती है क्योंकि उसके चरित्र में कभी भी बिग शॉट बनने वाली कोई बात नहीं लगती है। वह सदैव खम्बाटा के सामने प्यादा ही दिखता है और इसलिए मुर्ख लगता है।
  • एक प्रख्यात मजदुर नेता को फ़ॉकलैंड रोड जैसे भीड़ भरे इलाक़े में क़ैद रखा जाता है और किसी को कई खबर नहीं होती है।
और भी ऐसी कई बातें हैं जिस कारण फिल्म अविश्वसनीय लगती है और आप फ़िल्मकार को कहना चाहते हैं कि "भइया इतना बड़ा वाला मुर्ख भी न समझो हमें "
और बस इसी बात के कारण ये फिल्म का हश्र भी अनुराग की अन्य फिल्मों जैसा ही होगा । एक फिल्म जो कि क्लासिक हो सकती थी लेकिन ठीक ही बन पाई।
सारे पहलु सही बावजूद फिल्म गलत हो गयी । इस पर मेरे एक मित्र ने बड़ी सटीक बात कही है "आपरेशन सक्सेसफुल, लेकिन पेशेंट डेड"|



Friday, May 8, 2015

Avengers- age of Ultron: दिमाग सुन्न करने वाली फिल्म



कल जब मैं एवेंजर देख कर निकल तो माथा घुमा हुआ था | इस फिल्म में कई सारे सुपर हीरो हैं और वो सब मिल कर एक बड़े विलेन अल्ट्रोन का सामना करते हैं | कहने को तो अल्ट्रोन एक था लेकिन वो अपने असंख्य अवतार बना लेता है और वो सब हमारे हीरो से लड़ते हैं | तो आलम ये है कि एक बड़ी भीड़ आपस में लड़ रही है, कब कौन किसको मार रहा है, कब कौन मर रहा है, समझ ही नहीं आता है | वो तो जब आखिर में सारे सुपर हीरो जिंदा दिखते हैं तो समझ आता है कि कौन मरा है ?
चलिए मान लेता हूँ कि मैं इस फिल्म को समझने में कुछ धीमा रहा हूँ, लेकिन जैसे-जैसे मैं इस फिल्म पर विचार कर रहा हूँ, पा रहा हूँ कि मुझे ये फिल्म बिलकुल नहीं भायी है | मैं अपने कारण आप सबको बताता हूँ|

अगर आपने इस श्रंखला की पिछली फ़िल्में देखी हैं जिनमें मुख्यत: Iron Man Series, Captain America Series, Thor और  Avenger 1 हैं तो इस फिल्म में आप कुछ ऐसा नया नहीं पायेंगे | और एक जरूरी बात इस फिल्म को समझने के लिए आपको यहाँ बताई सभी फ़िल्में देखना ज़रूरी है, नहीं तो आपके कुछ भी पल्ले नहीं पड़ेगा | तो हो गयी न लौट के बुद्धू घर को आये वाली बात | पहले तो ये सभी फ़िल्में देखो और जब उनको देख इस नई फिल्म को देखने जाओ तो अपने आपको ठगा हुआ पाओ | लाहौल-बिला-कुवत!

माना कि इस तरह की सभी फ़िल्में Cinema of journey अर्थात यात्रा का सिनेमा है | मतलब हमें शुरू में ही पता है कि अंत क्या होने वाला है | हम तो सिर्फ वो कैसे होगा; ये जानने के लिए ये सिनेमा देख रहें हैं | इस श्रेणी में अधिकांश पापुलर फ़िल्में आती हैं | इस फिल्म के  किसी भी दर्शक ने ये नहीं सोचा होगा कि इस फिल्म में कोई भी एवेंजर की मृत्यु होगी, क्योंकि वो हो ही नहीं सकती आखिर वो सुपर हीरो जो ठहरे | ये भी शायद हरेक को अंदाज़ा था कि पुन: समूची मानव जाति पर कोई खतरा मंडराएगा और एवेंजर उस खतरे से निबट लेंगे | तो फिर भी लोग इस फिल्म को देखने क्यूँ जाते हैं ?

क्योंकि समूची मानव जाति बुराई पर अच्छाई की जीत की कहानियों का खजाना है | हमारे पुराण, धार्मिक ग्रन्थ जैसे महाभारत, रामायण, बाईबल इत्यादि सबमें अधिकांशत: एक मामूली सा हीरो एक महाशक्तिशाली विलेन का सामना कर उसे पराजित करता है | पिछली सभी फिल्मों में जो केवल यही हुआ था| लेकिन उन सभी फिल्मों में एक नयापन था, कहानी का, चरित्रों का, फिल्मांक्स का, स्पेशल इफेक्ट्स का आदि आदि का, जो न सिर्फ दर्शकों को आखिर तक बंधे रखा, उनको फिल्म पुन: देखने पर मजबूर भी किया| अफ़सोस मगर इस फिल्म में कुछ भी नया नहीं लगा |

यहाँ मैं आप सबका ध्यान एक लेख की ओर लाना चाहूँगा जो कि श्री जयप्रकाश चौकसे जी ने दैनिक भास्कर अखबार में लिखा है | चौकसे जी इंदौर के बड़े पुराने और मशहूर फिल्म वितरक हैं | साथ साथ वे बड़े उम्दा लेखक और फिल्म निर्माता भी हैं | उनका यह कालम दैनिक भास्कर अखबार में पिछले कई वर्षों से छप रहा है | उनके जो लेख मैं आप सबको पढ़ाना चाहता हूँ उसका लिंक नीचे है :
अवेंजर फिल्म के इस विवेचन के द्वारा मैं आप सबका ध्यान उस बड़ी बात जो कि चौकसे जी ने बहुत सटीक रूप से कही है, पर लाना चाहूँगा | मुझे पूरा यकीन है कि चौकसे जी की बात से आप सब भी सहमत होंगे | आज के इस तकनीकी युग में हर चीज़ पर तकनीक हावी होते जा रही है | यह जरूरी है कि हम उसे अपने जज्बातों, अपने ख्यालों पर हावी न होने दें | कहानी, कविता, अभिव्यक्ति आदि का स्थान अब तक तो तकनीक से श्रेष्ठ रहा है और आइये हम दुआ करें कि आगे भी रहेगा |

Tuesday, March 24, 2015

NH10 – इण्डिया से भारत की यात्रा

हाल ही में प्रदर्शित हुई नवदीप सिंह निर्देशित फिल्म “NH10” देखी | ये वही नवदीप सिंह हैं जिन्होंने “मनोरमा ६ फीट अंडर” जैसी बेहतरीन फिल्म निर्देशित की थी.
इस फिल्म की कहानी गुडगाँव में कार्यरत एक प्रोफेशनल पति-पत्नी (अर्जुन – मीरा) की है जो कि छुट्टी मनाने एक रिसोर्ट के लिए जा रह होते हैं | लेकिन रास्ते में उनका सामना कुछ ऐसी परिस्थितियों से होता है जिसमें कुछ लोग उनके खून के प्यासे हो जाते हैं | किस तरह से मीरा उन खूनी हमलावरों का सामना करती है और अपनी जान बचाती है, यही फिल्म का लब्बो-लुवाब है |
  • तो फिर क्या ये फिल्म महज इंतनी सी है ?
  • फिर क्यों इस फिल्म की इतनी तारीफ़ हो रही है ?
  • क्यों इस फिल्म को बदलते हिंदी सिनेमा का उदाहरण माना जा रहा है ?

मैं इन सवालों का जवाब देने की कोशिश करता हूँ | फिल्म की कहानी सीधी सरल है, शिकार और शिकारी की तनातनी और संघर्ष की | ऐसी कहानी हम बचपन से पंचतंत्र, जातक कथाएं, रामायण, महाभारत इत्यादि से सुनते आ रहे है | और जैसा इन अभी कहानियों में होता आया है कि अगर शिकार कोई निर्दोष, मासूम है तो वो येन-केन-प्रकारेण अंत में बच जायेगा और शिकारी का अंत कर देगा | यही इस फिल्म में भी है | लेकिन जो बात इस फिल्म को बहुत ऊँचा उठा देती है वो है इसका वातावरण, इसका प्रस्तुतिकरण और वास्तविकता से इसकी निकटता |
Arjun-Meera
फिल्म के मुख्य पात्र अर्जुन – मीरा बड़ी कंपनी में ऊँचे पद पर कार्यरत पति-पत्नी हैं जो कि उच्च शिक्षित, आज़ाद खयाल, अंग्रेजी में वार्तालाप करने वाले, ऊंची तनख्वाह पाने वाले, हाई क्लास सोसायटी में विचरने वाले व्यक्ति हैं | ये लोग एयर कंडिशन में ज़िन्दगी जीते हैं, बिसलेरी का पानी पीते हैं, आलिशान घरों में रहते है और महंगी विदेशी गाड़ियों में घूमते हैं यानि की ये हमारे देश के श्रेष्ठी वर्ग से हैं | इन लोगों को अपनी जाति, गोत्र आदि नहीं मालुम है |  ये हमारे देश का वो वर्ग है जिसकी संख्या अनुमानत: महज १०-१५ प्रतिशत होगी, लेकिन ये देश के बाकी 85 प्रतिशत की ज़िन्दगी का निर्धारण करते हैं | और शायद इसीलिए इस वर्ग के लोग स्वयं को बाकी देश से श्रेष्ठ समझते हैं | उनके पास विश्व की हर समस्या पर अपनी राय है भले वे उस समस्या को भली भांति समझ पाए हों या नहीं |
ये वो ही  वर्ग है जो अपनी अपनी बहुराष्ट्रीय कंपनी के ज़रिये ये निर्धारित करते हैं कि बाकी के देशवासी क्या खायेंगे, क्या पहनेंगे, कहाँ रहेंग इत्यादि इत्यादि | कुल मिलाकर ये लोग Shining India में रहते है | और अगर सच कहूँ तो हम में से अधिकतर या तो इस Shining India का या तो हिस्सा हैं या इसका हिस्सा बनने की आकांक्षा रखते हैं | जिस तरह अंग्रेजी के पीछे अंधाधुंध दौड़ते हुए हम अपनी मातृभाषा से दूर होते जा रहे हैं, उसी प्रकार Shining India का हिस्सा बनने के चक्कर में हम असली भारत को या तो भूल चुके हैं या उससे मुंह मोड़ चुके हैं | हम खुशबूदार एयर कंडिशन घर, दफ्तर और गाडी में रहते हुए भूल चुके हैं कि माटी की असली गंध क्या है ?
और अब अगर कभी हमें उस असली हवा में सांस लेनी पड़ती है तो वो हमें बहुत बदबूदार, असहनीय लगती है| लेकिन आप असलियत से कब तक मुंह चुराए रह सकते हैं ? एक न एक दिन तो वो आपके सामने आ कर खड़ी होगी ही, तब आप क्या करेंगे ?
इस फिल्म को देखने के बाद अधिकाँश दर्शकों को डर लगता है, वे असहज हो जाते हैं, उसका कारण सिर्फ ये है कि ये फिल्म सभी दर्शकों को भारत की उन सच्चाइयों से रूबरू कराती है जिनसे हम नज़रे चुरा रहे हैं |
मसलन मीरा एक दृश्य में प्रेजेंटेशन दे रही हैं और सुझाव दे रही हैं कि उनकी कंपनी जो स्त्रियों के लिये नया उत्पादन बना रही है वो कैसे खरीदा जाएगा और उसका नाम क्या होना चाहिये | वो उत्पाद यकीनी तौर पे सेनेटरी नेपकिन है जो कि हर महिला की एक नैसर्गिक ज़रूरत है | मीरा बताती हैं कि चूँकि भारत में अधिकांश महिलायें शर्म के कारण दूकान से ये चीज़ स्वयं नहीं खरीदतीं हैं, और इन महिलाओं के अधिकांश मर्दों को ये चीज़ खरीदना अपनी मर्दानगी पे धब्बा जैसा लगता है, इसलिए वे महिलाएं ज्यादातर ये चीज़ घर, पास पड़ोस के बच्चों के द्वारा खरीदती हैं | और चूँकि एक बच्चा इस उत्पाद को खरीदने आता है, इस उत्पाद का नाम ऐसा होना चाहिये जो हर बच्चा आसानी से ले सके | इस प्रेजेंटेशन के उपरान्त मीरा का एक पुरुष सहकर्मी उस पर कटाक्ष करता है कि मीरा को महिला होने के कारण बॉस से फायदा मिलता है |
इमानदारी से जवाब दीजिये, क्या ये सच नहीं है कि हम भारतीय बहुत भेद भाव करते हैं ? जाति, भाषा, रंग, लिंग, खान पान, पहनावा, आर्थिक स्थिति, धर्म इत्यादि किसी के भी आधार पर ? इस रोग से कोई भी अछुता नहीं है, राजा से रंक तक, अमीर से गरीब तक, भेद भाव करने की प्रवृत्ति हम सबमे बहुत गहरी पैठ चुकी है | यही भेद भाव हमारे देश में व्याप्त भ्रष्टाचार का मुख्य कारण है | इस फिल्म में ही देखिये कि समाज की सटीक जानकारी पाकर कोई भी कंपनी समाज में व्याप्त बुराइयों के उन्मुलन के लिए कोई प्रयत्न नहीं करती अपितु उस जानकरी से कैसे स्वयं का फायदा हो यही जुगत लगी रहती है जो कि मीरा के प्रेजेंटेशन से जाहिर होता है |
इसी प्रकार अपने अभिजात्य जीवन में मीरा और अर्जुन काफी उन्मुक्त हैं | इस रिश्ते में शायद मीरा का पलड़ा भरी भी है | वो बेझिझक अर्जुन के साथ मजाक करती है, उसे रिझाती है, छेड़ती भी है | लेकिन जैसे ही वो सड़क पर अकेली होती है, कई मर्द उसके अकेलेपन का फायदा उठाना चाहते हैं | और उस पर तुर्रा ये कि इस अराजकता के सामने पुलिस भी कुछ नहीं कर पा रही है | फिल्म में जब भी पुलिस से मीरा का सामना हुआ, पुलिस अधिकारियों ने कोई कार्यवाही करने के बजाय यही समझाइश दी कि आप भारत की हकीकत को समझें | अगर इससे आपको डर लगता है तो बेझिझक अपने पास बन्दुक रखें |
वो ये भी कहते हैं कि जाति भेद ने गरीब और पिछड़ों को अलग थलग किया हुआ है | अगर ये तबके एक हो जायें तो अमीर और श्रेष्ठी वर्ग से अपना हिस्सा कबका छीन चुके होते ?
इन सच्चाइयों से जब दर्शक का सामना होता है तो वो अंदर से सिहर उठता है क्योंकि कहीं गहरे मन में वो जानता है कि India और भारत के बीच की ये जो खाई है दिन पे दिन बढ़ती जा रही है | एक दिन ऐसा जरुर आयेगा कि ये भेद इतना बढ़ जायेगा कि दोनों पक्ष एक दुसरे का मुंह भी देखना पसंद नहीं करेंगे |
ये फिल्म एक और मुद्दा छेड़ती है कि कोई किस हद तक किसी दुसरे के मामले में दखल दे सकता है ? क्या आज के दौर में किसी के साथ अन्याय होता देख इसके खिलाफ आवाज़ उठाना सुरक्षित है ? और सबसे बड़ी बात कि हमारे देश में जाति, गोत्र, मजहब पे आधारित भेद- भाव इतना गहरा है कि वो माँ को बेटी का दुश्मन बना सकता है | समाज के ज़िम्मेदार प्रशासक, नेता, पुलिस कोई भी इस भेद-भाव से अछुता नहीं है |
जब ये बात सामने आती है तो महसूस होता है कि हमारा प्रजातंत्र महज एक भुलावा है | यहाँ सिर्फ जंगल राज है |

Navdeep Singh
फिल्म का तकनीकी पक्ष काफी मजबूत है | छायांकन, सम्पादन, साउंड और पार्श्व संगीत; सभी मुक़म्मल हैं | आप कहीं कोई त्रुटी नहीं बता सकते | अनुष्का शर्मा के नेतृत्व में फिल्म के सभी कलाकार एक से बढ़कर एक हैं | फिल्म आपको पूरी तरह बांधे रखती है | इसका पूरा श्रेय निर्देशक नवदीप सिंह को जाता है |