Saturday, December 20, 2014

PK - A very good film but…





आमिर खान और राजकुमार हिरानी आज के हिन्दुस्तानी सिनेमा के ऐसे नाम हैं कि इनकी हर फिल्म का बेसब्री इंतज़ार रहता है और जब इस जोड़ी ने पिछली फिल्म "3 इडियट्स " दी हो तो फिर कहना ही क्या ? तो बाकी सिनेमा प्रेमी जैसे मैंने भी आज फर्स्ट डे फर्स्ट शो इस जोड़ी की नवीनतम पेशकश "PK" देख डाली । यहां ये बताना लाज़मी है कि ये फिल्म अब तक की सबसे बड़ी रिलीज़ मानी गयी है । पूरे विश्व में ये फिल्म कुल 6000 प्रिंट पे रिलीज़ की जा रही है | मतलब कम से कम इस फिल्म को 6000 थियेटर में साथ रिलीज़ किया जा रहा है । ये एक छोटी मोटी हॉलीवुड फिल्म के जैसी रिलीज़ है जो कि आमिर - राजकुमार जोड़ी के लिए नि:संदेह वाजिब है ।

अब तक आप सभी ने इस फिल्म के विभिन्न रिव्यू पढ़ लिए होंगे और जान ही चुके होंगे कि "PK" को सबने बेहतरीन फिल्म मान लिया है लिया है । फिर भी अगर किसी ने वह रिव्यू न पढ़ा हो तो कृपया नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें :

http://www.bollywoodhungama.com/moviemicro/criticreview/id/558557

http://www.rediff.com/movies/review/review-pk-is-a-triumph-and-aamir-soars-high/20141219.htm

http://www.rediff.com/movies/review/review-pk-is-a-mixed-bag-of-spunk-and-sentimentality/20141219.htm

उपरोक्त से आपको इस फिल्म के बारे में समस्त जानकारी मिल ही गयी होगी । इसलिए मैं यहां वही जानकारी देकर समय जाया नहीं करूंगा । अपितु मैं उन पहलुओं को छूने की कोशिश करता हूँ जो इनमें नहीं दिए गए हैं ।

सबसे पहले गौर करें राजकुमार हिरानी की फिल्मों के टेम्प्लेट पर । मैं मानता हूँ वे ऋषिकेश मुखर्जी निर्देशित "आनंद" फिल्म के शायद सबसे बड़े प्रशंसक हैं और उसी फिल्म से अपनी हर फिल्म की प्रेरणा लेते हैं । याद करें कि "आनंद" क्या कहानी थी, एक मलंग सा व्यक्ति कहीं से कुछ लोगों की ज़िन्दगी में अचानक से आ जाता है और उन लोगों की निहायत उदास, मशीनी और उबाऊ ज़िंदगी को बदल डालता है । दूसरे शब्दों में वो उन लोगों को जीना सीखा देता है । यही बात राजकुमार हिरानी की हर फिल्म में रही है । "मुन्नाभाई एम बी बी एस " में एक गुंडा एक हस्पताल में पहुंच जाता है और वह वहां डाक्टरों को इंसान बन कर इलाज़ करना सीखा देता है । "लगे रहो मुन्नाभाई " में महात्मा गांधी मुन्ना के द्वारा पुन: जनमानस में जाते हैं और पूरे समाज को बदल देते हैं । "3 इडियट्स" में एक मलंग छात्र रेंचो इंजीनियरिंग कालेज में पहुंच जाता है और अपने दोनों दोस्त और कालेज के प्रिंसिपल की ज़िंदगी ताउम्र लिए बदल देता है ।

मैं ये बता कर राजकुमार हिरानी उनके सह लेखक अभिजात जोशी की निंदा नहीं हूँ बल्कि उनके लेखन कौशल की तारीफ़ कर रहा हूँ । एक ही परिस्थिति पर लगातार ३ अलग अलग कहानी कहना वो भी एक से बढ़कर एक, ये सामान्य बात नहीं है ।
Hrishikesh Mukherjee
बतौर निर्देशक राजकुमार हिरानी पुन: ऋषिकेश मुकर्जी के ही छात्र हैं । अपने गुरु की तरह उनकी फिल्मों में भी एक सरलता और सहजता होती है । उनकी फिल्मों में तकनीक कभी भी कहानी पर हावी नहीं होती है । आप कभी भी इन फिल्मों के तकनीकी पक्ष जैसे छायांकन, सेट डिज़ाइन, कॉस्ट्यूम, पार्श्व संगीत, साउंड डिज़ाइन आदि पर ध्यान नहीं दे पाएंगे । आप केवल और केवल कहानी में डूबे रहेंगे जो कि चरित्रों द्वारा आपके सामने पेश हो रही है । यहां तक कि इन फिल्मों में स्टार अभिनेता भी वही चरित्र लगते हैं जो कि वे निभा रहे हैं । हमको कभी महसूस नहीं होता है कि ये चरित्र इस अभिनेता कोई और भी निभा सकता था । इसके लिये राजकुमार और उनकी  समूची टीम काबिल-ए-तारीफ है ।

मेरा मानना है कि "3 इडियट्स" पिछले १० सालों बड़ी हिट फिल्म है । कहने वाले कह सकते हैं कि इसके बाद कितनी फिल्म आयीं जैसे "किक", धूम 3, चैन्नई एक्सप्रेस और हाल ही में "हैप्पी न्यू यीअर" जिनका व्यापार 3 इडियट्स से ज्यादा है । उनको मैं बस यही याद दिलाना चाहूंगा कि 3 इडियट्स फिल्म रिलीज़ हुई थी 2009 दिसंबर में जबकि विश्वव्यापी मंदी छायी हुई थी । उसके बावजूद लोगों ने वह फिल्म प्रथम सप्ताह में ही कई कई बार थियेटर में टिकिट लेकर थी । मुझे याद है मैंने 3 इडियट्स मुंबई में रिलीज़ होने वाले शुक्रवार के पहले गुरूवार को विशेष शो में देखी थी । आम शो के मुकाबले टिकट महंगा था और देर रात 11 बजे से था । उसके बावजूद वह शो हाउसफुल था । और जब फिल्म खत्म हुई तो मैंने एक दर्शक को फोन पे किसीसे कहते सुना कि कल सुबह मैं ये फिल्म फिर देखूंगा । आप ही कहिये आपने भी ये फिल्म एक से ज्यादा बार देखी है कि नहीं ?

राजकुमार हिरानी को जो बात बेहतरीन निर्देशक बनाती है वो उनका बेहतरीन संपादक होना । यहां मैं बताना चाहूंगा कि राजकुमार हिरानी पुणे स्थित भारतीय फिल्म एवं टेलीविज़न संस्थान से सन 86 में फिल्म सम्पादन में डिप्लोमा किये हुए हैं । निर्देशक बनने से पहले उन्होंने "मिशन कश्मीर" फिल्म संपादित की थी । आपको उनकी किसी भी फिल्म में कुछ भी अनावश्यक नहीं लगेगा चाहे वो सीन हो, चरित्र हो या संवाद । हर चीज़ उतनी ही है जितनी कि ज़रूरी है, न कम न ज्यादा ।

यही सब विशेषता उनकी नई फिल्म "PK " में भी है । इस फिल्म के हर पहलु पर राजकुमार हिरानी का ठप्पा लगा हुआ है । ये भी आनंद फिल्म से प्रेरित है, ऋषिकेश मुकर्जी स्कुल की फिल्मों की तरह सीधी सरल सहज है, तकनीक केवल कहानी को बेहतर बनाती है और एकदम सधी हुई फिल्म है । मेरे साथ ये फिल्म मेरे एक मित्र ने देखी जिनका व्यवसाय ऑटो चलाना है । वो ये फिल्म देख कर अभिभूत था । उसके शब्दों में फिल्म की कहानी कहीं झोल नहीं खाती है, कहीं भी बोर नहीं होते हैं । निस्संदेह इस फिल्म में आमिर का सर्वश्रेष्ठ अभिनय है, पर सिनेमा को तो निर्देशक का माध्यम मानते हैं । फिल्म की हर अच्छाई - बुराई के लिये केवल वही ज़िम्मेदार है ।

लेकिन सबसे बड़ी विशेषता इस की जो है और वो राजकुमार हिरानी की हर फिल्म की होती है उसका समाज लिए संदेश । जब अधिकांश फिल्मकार मनोरंजन के नाम पर फूहड़ता परोस रहे हैं उसी समय में एक फिल्मकार ऐसा है जो कि अपनी प्रत्येक फिल्म में न सिर्फ स्वस्थ मनोरंजन प्रस्तुत करता है, उसके साथ बहुत सामायिक संदेश भी देता है । और यही बात उनको और उनकी हर फिल्म को महान बना देती है ।

PK आज विश्वव्यापी धार्मिक कट्टरता, रूढ़िवाद, अंधविश्वास और असहिष्णुता को ललकारती है । इसका संदेश सीधा है कि श्रद्धा भय नहीं आस्था से उपजनी चाहिये । लेकिन हर धर्म में मौजूद उसके तथाकथित ठेकेदार और उनके द्वारा फैलाया आडंबर का मायाजाल केवल भय ही पैदा करता है । अगर हमें मानवता और अपने भविष्य की रक्षा करनी है तो हमें हर भय से मुक्त होना होगा ।

ये फिल्म इतनी बड़ी बात हमारे सामने रखती है लेकिन समूचे थियेटर में एक भी ऐसा शख़्स नहीं था जो इस बात का बुरा माना हो । उलटे सब तालियां बजा रहे थे । और तो और बाहर निकलते हुए फिल्म पुन: देखने का प्लान बना रहे थे ।

लेकिन इन सबके बावजूद मुझे लगा कि ये राजकुमार हिरानी की सभी फिल्मों में सबसे कमज़ोर फिल्म है । और उसका कारण इस फिल्म में खलनायक का न के बराबर होना है । फिल्म में पीके इतना सटीक और मजबूत पात्र है कि वो पूर्णत: अपराजेय है । उसके सामने जो तपस्वी हैं वो कभी भी पीके पर हावी नहीं पाता है । और शायद इसलिये मध्यांतर के बाद फिल्म बहुत सपाट सी लगती है और कभी कभार खिंचती हुई भी लगती है ।

लेकिन फिर भी ये एक बहुत उम्दा फिल्म है जो कि कई बार देखे जाने योग्य है । और अगर इसे देख कर कुछ लोग ही स्वयं को भयमुक्त कर सके तो वो समाज के लिए बहुत बड़ी बात होगी ।

Tuesday, November 25, 2014

Interstellar (इंटरस्टेलार) एक अद्भुत अनुभव

निर्देशक क्रिस्टोफर नोलन और उनकी फ़िल्में
मेरी जानकारी में शायद ही कोई अंग्रेजी फिल्म देखने वाला व्यक्ति हो जिसने The Prestige, Batman Begins, The Dark Knight, Dark Knight Rises और Inception फ़िल्में न देखी  हो और इन्हें सराहा न हो । ये फिल्में सिनेमा के इतिहास की महानतम फ़िल्में हैं। इन सबमें जो समानता है वो ये कि इन सबके निर्देशक क्रिस्टोफर नोलन हैं । उनके भाई जोएल नोलन इन सब फिल्मों में क्रिस्टोफर के सह लेखक हैं । तो जब भी इन नोलन बंधुओं की कोई फिल्म आती है तो पूरी दुनिया में कुतूहल होता है। और नोलन बंधू कभी भी निराश नहीं करते हैं | वे अपनी हर आगामी फिल्म से अपना मापदंड ऊँचा करते जा रहे हैं। 
इंटरस्टेलार (अर्थात तारों  दरमियान ) इन्ही नोलन बंधुओं की  नवीन कृति है । कहना न होगा कि मैं भी इस फिल्म को देखने के लिए बहुत उत्सुक था । ये फिल्म मूलत: IMAX format में शूट की गयी है ।
जानकारी हेतु मैं यहाँ बताना चाहता हूँ कि IMAX format क्या है ?
१८९५ में सिनेमा का जन्म हुआ था | तबसे पिछले कुछ सालों तक सिनेमा celluloid role (रील) पर शूट होता था। मेरे हमउम्र दोस्तों ने कभी न कभी still photography में प्रयुक्त होने वाली रोल देखी होगी । वो यही celluloid role (रील) होती थी जिसका फ्रेम साईज़ ३५ मिलीमीटर होता था । यही ३५ मि. मी. की रोल पर अधिकांशत: चलचित्रों  की शूटिंग होती थी । ३५ मि. मी. के आलावा जो फ्रेम साईज़ प्रचलित थीं वो थीं ८ मि. मी., १६ मि. मी., ७० मि. मी. और IMAX
माना जाता है कि फ्रेम का साईज़ जितना बड़ा होगा, छवि उतनी ही उच्च क्वालिटी की होती है ।
विभिन्न फ्रेम साईज
इसलिए ३५ मि. मी. से भी बड़ी फ्रेम ईजाद की गयी। आदर्श परिस्थिति में होना ये चाहिए था कि सभी फिल्म
IMAX format में शूट होनी चाहिए, लेकिन यहाँ भी क्वालिटी पर रूपया भारी पड़ गया। सीधे शब्दों में IMAX format पर शूटिंग करना साधारण ३५ मि. मी. पर शूटिंग करने से कमसकम चौगुना महंगा पड़ता है और आज के डिजिटल दौर में तो कम से कम १० गुना महंगा। इसलिए IMAX format पर केवल हॉलीवुड में चुनिंदा फ़िल्में शूट की गयी हैं। हॉलीवुड के बाहर अभी तक IMAX format पर कोई फिल्म शूट नहीं की गयी है। और उन चुनिन्दा फिल्मों  में से एक ये फिल्म Interstellar है|



एक बात का ज़िक्र और करना चाहूँगा कि इस फिल्म की रिलीज़ से पहले काफी विवाद हो रहे थे| बात ये है कि पिछले कुछ सालों से डिजिटल तकनीक ने पुराने फिल्म रोल को पूरी तरह ख़त्म कर दिया है| आज आलम यह है कि फिल्म रोल की मांग न होने की वजह से फिल्म रोल के सबसे बड़े निर्माता KODAK ने अपनी फिल्म रोल निर्माण की फेक्टरी बंद कर दी है| आज स्थिर चित्रों से लेकर चलचित्रों तक सभी कुछ डिजिटल तकनीक से शूट हो रहा है| लेकिन हालीवुड में अभी भी कई निर्देशक हैं जो मानते हैं कि उच्च कवलिटी की छवि केवल फिल्म रोल से ही आ सकती है और वे अभी भी फिल्म रोल पर हीं शूट कर रहे हैं| उन निर्देशकों में सबसे अग्रणी हैं क्वेंटिन टेरेनटिनो
निर्देशक क्वेंटिन टेरेनटिनो की विन्भिन्न फ़िल्में 
और क्रिस्टोफर नोलन| नोलन ने न सिर्फ फिल्म रोल पर ये पिक्चर की शूटिंग की  है, बल्कि उन्होंने तो घोषणा कर दी थी कि वे इस पिक्चर का प्रदर्शन केवल उन थियेटरो में करेंगे जहां पर फिल्म  रोल प्रोजेक्शन की व्यवस्था हो| इस घोषणा ने पूरे विश्व में हलचल मचा दी थी |
दरअसल डिजिटल तकनीक के चौमुखी विस्तार ने अधिकांश फिल्म थियेटरो में पुराने फिल्म रोल प्रोजेक्टर को नए डिजिटल प्रोजेक्टर से बदलवा दिया है | नोलन की घोषणा के कारण ये सारे थियेटर अचानक इस फिल्म का प्रदर्शन करने में अयोग्य हो गए | और केवल एक फिल्म के लिए पुन: फिल्म रोल प्रोजेक्टर लगवाना किसी भी सिनेमा हाल मालिक के लिए फायदे का सौदा नहीं था | और इस फिल्म को अपने हाल में न प्रदर्शित कर पाना भी घाटे का सौदा था | आखिरकार बड़े स्टूडियों की मध्यस्थता से मामला सुलझा | उन्होंने नोलन को यही कहा  होगा कि आपकी जिद के कारण कितना नुक्सान हो जाएगा और फिल्म काफी कम दर्शकों तक पहुंचेगी |
मेरा मानना है कि कम दर्शक तक पहुँचने वाली बात ने नोलन को विचार बदलने पर मजबूर किया होगा क्योंकि हर सच्चा कलाकार अपनी कृति ज्यादा से ज्यादा दर्शकों तक पहुँचाना चाहता है | बहरहाल ये फिल्म गये शुक्रवार प्रदर्शित हो गयी और तीन दिन बाद ही सही, मैंने भी देख ही डाली |

संक्षेप में ये फिल्म की कहानी एक अन्तरिक्ष यान के पाइलेट “कूपर” की है जिसे धरती का भविष्य बचाने के लिए अपने दोनों बच्चों को छोड़ कर एक अन्तरिक्षीय मिशन पर जाना पड़ता है | पृथ्वी पर मानव जीवन खत्म हो रहा है| मनुष्य के पास स्वयं को जीवित रखने का केवल एक ही समाधान है कि किसी और ग्रह को तलाशे जहाँ पर जीवन मुनासिब हो | इस हेतु गोपनीय रूप से पहले ही एक बहुत बड़ा मिशन अलग अलग ग्रहों पे भेजा जा चुका है | उन ग्रहों से माकूल सिग्नल भी प्राप्त हो चुके हैं मगर अभी ये तय नहीं हो पा रहा है की कौन से गृह को चुना जाये| इसलिये पृथ्वी से कूपर की अगुआई में ये मिशन भेजा जा रहा है कि अंतत: कौन से ग्रह को चुना जुये जाये !
अपनी जान को जोखिम में डालकर वे लोग एक - एक करके सभी ग्रहों का अध्ययन कर लेते है| इस दौरान विभिन्न हादसों में टीम के महत्त्वपूर्ण सदस्य अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं | अंत में कूपर और एक अन्य डाक्टर बचे हैं | पृथ्वी के भले और अपने बच्चों के लिए कूपर अपनी जान कुर्बान कर वो अपनी सहयात्री की जान बचा लेता है और पृथ्वी पे घिर आये संकट के बारे में अत्याधिक महत्त्वपूर्ण जानकारी भेज देता है | 

मैं कहानी को और विस्तार में नहीं बताऊंगा नहीं तो इस फिल्म को देखने का आपका आनन्द चला जायेगा| पर मैं ये अवश्य बताऊंगा कि इस फिल्म के बारे में मेरी प्रतिक्रिया क्या है ?
मुझे ये फिल्म बहुत अच्छी लगी है | जिस तरह से एक बहुत मुश्किल विषय को इस फिल्म के द्वारा सरलता से कहने की कोशिश की है वो निस्संदेह काबिले-तारीफ है | आगे बढ़ने से पहले मैं कुछ प्रश्न पूछना चाहता हूँ:
१.      समय से पहले और समय के बाद क्या है ?
२.      क्या इस ब्रह्मांड का कोई अंत है ?
३.      क्या पृथ्वी जैसे और भी ग्रह हैं ?
४.      समय और स्थान का किसी व्यक्ति पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
५.      Black Hole के पार क्या है ?
६.      अगर ये ब्रह्मांड अथाह है तो फिर क्या इसकी गहराई मापी जा सकती है ?
७.      क्या ब्रह्मांड के की सुदूर जगहों पे जाया जा सकता है ?
८.      पृथ्वी का भविष्य क्या है ?
९.      क्या इस पृथ्वी पर एक और दुनिया मौजूद है जो कि एक अदृश्य दीवार से इस दुनिया से अलग हुई है ?
१०.  इस सुदूर ब्रह्मांड में अगर यात्रा की जायेगी तो क्या होगा ?

आप लोग समझ ही चुके होंगे कि इनमें से किसी भी प्रश्न का उत्तर न तो सीधा है और न ही अभी तक पता चल पाया है | अभी तक विज्ञान इन सब प्रश्नों के हल के लिए केवल थ्योरी और नियम ही बना पाया है| इनका सही उत्तर कब मिलेगा आज बता पाना बहुत मुश्किल है | और यही इस फिल्म की सबसे बड़ी खासियत है |
इस फिल्म में कई ऐसी बातें हैं जो सहजता से स्वीकार्य नहीं है जैसे black hole का अनुभव, worm hole से दूर दराज़ के अन्तरिक्ष का शार्ट कट रास्ता, अत्याधिक ग्रेविटी (गुरुत्त्वा) के कारण समय का धीरे हो जाना इत्यादि | लेकिन फिर भी नोलन बन्धुओं ने एक ऐसी फिल्म रची है जो है पूरी तरह काल्पनिक लेकिन नामुमकिन नहीं लगती है | आप ये मानने को मजबूर हो जाते हैं कि हाँ ऐसा हो सकता है | और सिनेमा की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि वो कल्पना को भी एकदम यथार्थ बना देती है | और दूसरी खासियत होती है थियेटर से निकल जाने के बाद भी अपने जहन में फिल्म का चलते रहना | यही खासियत शोले, लगान, ३ इडियट्स जैसी सभी कालजयी फिल्मों की है| शायद इसी वजह से कोई फिल्म कालजयी बनती है |
Interstellar ने एक और बड़ा काम किया है | इस फिल्म ने कई लोगों में विचार मंथन प्रेरित किया है | ब्रह्मांड और अन्तरिक्ष जैसे गूढ़ विषयों के प्रति बहुत से दर्शकों में कुतुहल बड़ा दिया है | कई विद्यार्थी होंगे जो हो सकता है आगे चलकर महान वैज्ञानिक बन जाएँ | उन सभी को पहली  प्रेरणा शायद इस फिल्म से ही मिली हो |


अगर आपने नोलन बंधुओं की पुरानी फिल्में देखी हों तो आपको याद होगा कि वे अपनी पहली फिल्म Memento से ही समय और स्थान के तारतम्य को उल्ट पुलट करने की कोशिश कर रहे हैं| Memento में हीरो को कुछ याद नहीं रहता है और वो अपने सभी अनुभव की तस्वीर खिंच कर उसे याद रखता है | लेकिन जब फिल्म का अंत होता है तो आपको समझ आता है कि दरअसल कहानी तो अंतिम दृश्य से शुरू हुई थी | 
इसी प्रकार Inception के अंतिम ४५ मिनट हर दर्शक के लिए अविस्मरणीय हैं जब कथानक एक साथ स्वप्नलोक के ४ स्तरों पर चलने लगता है |

सिनेमा में जो फिल्म की लम्बाई होती है उसे Real Time कहा जाता है और जो कहानी का समय होता है उसे REEL Time कहा जाता है | अधिकांशत: आप जितनी भी फ़िल्में देखते हैं उसमें दो घंटे के Real time में आप दो घंटे से ज्यादा समय की कहानी देखते हैं अर्थात Real Time < Reel Time|
बहुत कम ऐसी फिल्म है जिसमें २ घंटे के Real Time में दो घंटे समय की ही कहानी कही गयी हो अर्थात Real Time = Reel Time, जैसे कि High Noon.
 और ऐसी तो अभी तक एक भी ऐसी पूरी फिल्म नहीं बनी है जिसमें २ घंटे के Real time में दो घंटे से कम समय की कहानी कही गयी ही अर्थात Real Time > Reel Time. लेकिन फिर भी ऐसी प्रयोग लिए जा रहे हैं जहां ये कोशिश की गयी है| इसका सबसे पहला उदहारण मणि कौल द्वारा निर्देशित “उसकी रोटी” फिल्म में है|

यहाँ मणि जी रोटी बनने की प्रक्रिया जो की सामान्यत: २ मिनट की होती है, उसको ३-४ मिनट तक होते दिखाया है | यहां ये ध्यान रखें कि इसके लिए उन्होंने कोई स्लो मोशन प्रभाव नहीं दिया है अपितु अभिनय, डायलाग और साउंड के द्वारा उन्होंने समय को उलट पुलट किया था | इसके बाद Inception में नोलन बन्धुओं ने भी यही कोशिश की थी जो कि बहुत कामयाब रही | और अब उन्होंने पुन: समय के अनुभव को बदला है | 
ये कार्य हर फिल्म में शायद इसलिए नहीं हो सकता है क्योंकि हम सभी के अंदर एक प्राक्रतिक घड़ी लगी हुई है जिसके द्वारा हम समय का अनुभव कर सकते हैं | वो है हमारा हृदय और उसकी धड़कन | अगर कभी भी इस समय की अनुभूति धीमें या तेज़ होती है तो हम घबड़ा उठते हैं| इसलिए साधारण कथानक में ये कोशिश कोई नहीं करता है| लेकिन अगर कहानी के बहाव में आपके साथ ये बदलाव किया जाता है तो आप उसका आनन्द लेते हैं जैसे कि उपरोक्त फिल्मों में किया गया है | इसलिए जब आप ये फिल्म देखते है तो आपका मन स्वमेव ही मनन करने लगता है |

और अब मैं आता हूँ फिल्म के तकनीकी पहलुओं पर | अगर आप ये मानते हैं कि काल्पनिक को सच दिखा पाना बहुत ही मुश्किल कार्य है तो फिर आपको इस फिल्म की तकनीकी गुणवत्ता पर कोई शक ही नहीं रहा होगा| फिल्म के सारे विभागों ने एक से बढ़कर एक योगदान दिया है| फिल्म का छायांकन, सम्पादन, पार्श्व संगीत इत्यादि इस साल आस्कर अवार्ड के कड़े दावेदार रहेंगे|
यहाँ मैं विशेषत: फिल्म के सम्पादन और पार्श्व संगीत का ज़िक्र करना चाहूँगा | अगर आपने ध्यान दिया हो तो ये फिल्म पहले काफी धीमे चलती है जैसे कि एकदम स्थिर हो, अचानक से भागने लगती है और फिर जैसे तूफ़ान के बाद का सन्नाटा होता है वैसे फिर स्थिर हो जाती है | ये पैटर्न पूरी फिल्म का है | ये सिर्फ सम्पादक का कार्य नहीं है अपितु लेखक – निर्देशक ने वैसे ही पूरी फिल्म की कल्पना की है, सम्पादक ने केवल बड़ी सफाई से फिल्म को वैसे ही प्रस्तुत किया है | ऐसा क्यों किया गया है? जब फिल्म का कथानक पृथ्वी है तो वहां सब कुछ बर्बाद हो चुका है | अब किसी के जीवन में कोई उत्साह कोई उमंग नहीं है | सब तरफ एक निराशा है और इसीलिए फिल्म की गति भी वैसी ही है जब तक कि पात्रों के जीवन में कोई रोमांच नहीं आता है जैसी के वो ड्रोन विमान जिसे हीरो पकड लेता है| हीरो का उस ड्रोन का पीछा करना बहुत तेज़ दिखाया गया है ताकि दर्शकों तक वह रोमांच पहुंच सके. ठीक यही ट्रीटमेंट अंतरिक्ष में भी रखा गया है | चूँकि अतरिक्ष अनंत है उसमे आपकी गति का आभास ही नही होता है, इसलिए फिल्म भी गतिहीन सी लगती है | लेकिन जैसे ही कुछ रोमांचक घटना घटित होती है फिल्म एकदम तेज़ चलने लगती है | इस प्रकार से निर्देशक पूरी फिल्म में दर्शकों की नब्ज़ अपने हाथ में रखे हुए है |

ठीक ऐसा ही ट्रीटमेंट फिल्म के साउंड डिज़ाइन और पार्श्व संगीत को है | अधिकांश घटनाक्रम  अन्तरिक्ष में हो रहा हैं जहां वेक्यूम के कारण आवाज़ एक जगह से दूसरी जगह नहीं जाती है | तो ऐसी जगह में साउंड को भी अलग तरह से दिखाया गया है | वैसे भी ध्वनी पर बात करना बहुत मुश्किल है| वो एक अहसास है जो सिर्फ महसूस किया जा सकता है | फिर भी आप सब के लिए मैं कुछ लिंक शेयर कर रहा हूँ जो आपको इस फिल्म को सराहने में मदद करेंगे |


तो कुल मिला कर ये फिल्म एक बेहतरीन और सदैव याद रहने वाली फिल्म है | मैं इसको इसके मूल स्वरूप IMAX में नहीं देख पाया हूँ पर जल्द ही देखूंगा और शायद २-३ दफे देखूंगा |