Thursday, March 20, 2014

हाईवे




निर्देशक : इम्तियाज़ अली
इम्तियाज़ अली आज हिंदी सिनेमा के वो निर्देशक हैं जिनके साथ फिल्म उद्योग की हर हस्ती काम करने को तत्पर है. और इसी का परिणाम है कि हिन्दुस्तान के दोनों आस्कर विजेता ए. आर. रहमान, रसूल पुक्कुट्टी और हिन्दुस्तान के सबसे निष्णात कैमरामेन अनिल मेहता, एडिटर आरती बजाज जैसे श्रेष्ठतम तकनीशियन उनकी नवीनतम फिल्म “हाईवे” से जुड़े हैं. और शायद इसी कारण से कोई भी सिनेमा प्रेमी उनकी फिल्म को देखने ज़रूर जायेगा.

और ये इम्तियाज़ का आत्मविश्वास ही है कि “राकस्टार” में रनबीर कपूर जैसे सितारा कलाकार के साथ काम करने के बाद भी उन्होंने रणदीप हुड्डा को अपनी फिल्म का हीरो बनाया. आप सब मानेंगे कि रणदीप बेहतरीन अभिनेता हैं पर उनके नाम पर सिनेमा के टिकिट नहीं बिकते हैं. और फिर आलिया भट्ट जैसे एकदम नयी अभिनेत्री जो अपनी पिछली ओर पहली फिल्म “student of the year” में मात्र एक सेक्स सिम्बल थीं, उनकी जोड़ी रणदीप के साथ इस फिल्म में पेश की गयी है. ये सिर्फ इम्तियाज़ अली जैसे हुनरमंद निर्देशक ही कर सकते हैं.

हाईवे की कहानी है वीरा नामक युवती की जो कि दिल्ली के अति सम्भ्रांत परिवार की शहजादी है और जिसका विवाह उसके समकक्ष परिवार के एक लड़के से होने वाला है. लेकिन ऐन शादी के कुछैक दिन पहली एक ग़लतफ़हमी के चलते उसका अपहरण हो जाता है. अपहर्ता महावीर भट्टी नामक एक हरियाणवी ग्रामीण है जो कि ३ क़त्ल कर चुका अपराधी है. वो हर बड़े शहर के आस पास के उन सभी ग्रामीणों को का प्रतीक है जिनकी जमीन जायदा बेतहाशा बढ़ते शहरों ने निगल ली है और उनके पास अब अपराध या फाकाकशी के अलावा कोई और रस्ता नहीं है. इस बात के अलावा महावीर को शहरी सम्भ्रांत लोगों से कुछ व्यक्तिगत खुन्नस भी है जो उसे अपने बुजुर्गों और अन्य साथियों के समझाने के बावजूद वीरा को रिहा नहीं करने देती है. वो वीरा के एवज़ में तगड़ी फिरौती मांगने के बाद उसे वेशायावृत्ति में फेंकने वाला है.

चूँकि वीरा कोई ऐरी गैरी फिरौती नहीं है, उसके परिवार के रसूख और दिल्ली पुलिस के शिकंजे से बचने के लिए महावीर अपने ३ साथियों के साथ वीरा को लेकर अपने ट्रक में दिल्ली से दूर राजस्थान ले जाता है. परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बनती हैं कि महावीर उर वीरा को एक कभी न खत्म होने वाली यात्रा पर निकल पड़ता है. वो उसे राजस्थान से पंजाब, पंजाब से हिमाचल, हिमाचल से कश्मीर तक ले जाता है. इतनी लम्बी यात्रा में साथ रहते हुये वीरा को अपने अपहर्ताओं का मानवीय रूप देखने को मिलता है और साथ मिलती है एक अद्भुत आज़ादी जो उसे कभी अपने घर पर नहीं मिली थी. उसका अपनापन अपने अपहर्ताओं से इतना प्रगाढ़ हो जाता है कि वो उनसे अपने वो राज और दर्दनाक अतीत तक बाँट पाती है जो वो अपने सगे लोगों तक से कभी बाँट नहीं पायी थी. 

ठीक ऐसी ही स्थिति महावीर की भी है. वीरा की मासूमियत के सामने उसकी कठोरता पिघलने लगती है और उसके भीतर के दर्द भी उसके न चाहते हुये भी सामने आने लगते हैं. दोनों एक दुसरे के सच्चे साथी और हमसफर बन जाते हैं. और इस नशे में वे भूल जाते हैं कि वीरा के परिजन और दिल्ली पुलिस उनको सूंघती फिर रही है. जिस दिन वे इस सच्चाई से रूबरू होते हैं वो दिन उनकी जिंदगी हमेशा हमेशा के लिए बदल देता है.

आप भी महसूस कर रहे होंगे कि कहानी में कोई नयापन नहीं हैं. अपह्रत और अपहर्ता के बीच पनपती कोमल भावनाओं (Stockholm Syndrome) पर पहले भी कई फिल्म बन चुकी हैं और आगे भी बनती रहेंगी. जो बात इन फिल्मों को एक दुसरे से अलग बनाती है वो है उस फिल्म के इन दो मुख्य चरित्रों की भावनात्मक यात्रा. हाईवे में ये यात्रा भावनात्मक तो है ही यहाँ वो यात्रा भौतिक भी है जिसमें दोनों चरित्रों के साथ हम दर्शक भी अपने देश की समृद्ध संस्कृति और विस्तृत खूबसूरती को देख पाते हैं. दोनों चरित्रों की भावनात्मक निकटता  भी शारीरिक नहीं हो कर आध्यात्मिक और आत्मिक हो जाती है. 

छायाकार : अनिल मेहता
और इसे गाढ़ा बनाता है उत्कृष्ट छायांकन, ह्रदयस्पर्शी अभिनय, बेमिसाल साउंड डिज़ाइन और उच्च कोटि का गीत संगीत. फिल्म की आध्यात्मिक फील के मद्देनजर फिल्म के अधिकांश गीत लोकगीत हैं जिनको रहमान ने अपने संगीत से और प्रभावशाली बना दिया है. फिल्म का कोई भी गाना शायद सामान्यत: आप गुनगुना नहीं सकेंगे लेकिन फिल्म में वे आपको बहुत सटीक और मधुर लगेंगे. फिल्म देखने के बाद आप बार बार उनको सुनना चाहेंगे. इरशाद क़ामिल के गीत बहुत सूफी महसूस होते हैं. फिल्म में एक लोरी गीत भी है जो कि हिंदी सिनेमा में कई सालों बाद आया है. 

साउंड डिज़ाईनर : रसूल पुकुट्टी
यहाँ मैं साउंड डिजाईन का ज़िक्र विशेषत: करना चाहता हूँ. फिल्म में बहुत कम डायलाग हैं. अधिकतर सीन में खामोशी है और आप जो सुनते है वो होता है किसी भी हाईवे का आम्बिएन्ट (ambient) साउंड. हर नए शहर के वातावरण की अपनी एक विशिष्ट ध्वनी है जो आपको इस फिल्म में सुनने को मिलेगी. और वो कहीं भी आपके उपर हावी नहीं होती अपितु आपको उस जगह पर ले जाती है. इसलिये ज़रूरी है कि आप इस फिल्म को किसी ऐसे सिनेमाघर में देखें जिसका साउंड प्रसारण बेहतरीन हो.

और इन सबको बहुत खूबसूरती से पिरोया है इम्तियाज़ के निष्णात निर्देशन ने. इम्तियाज़ ने अपनी कथा-पटकथा की कमजोरी को अपने निर्देशन से सम्भाला है. फिल्म के अंत के ४५ मिनट फिल्म को एक अलग ही रूहानी दर्जे पर ले जाते हैं. उसको शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता. केवल महसूस किया जा सकता है. और मेरे