Tuesday, December 3, 2013

सिंघ साहब द ग्रेट "Failure"



कुछ दिनों पहले मैंने “सिंघ साहब द ग्रेट” फिल्म देखी. मैं यहाँ बताना चाहूँगा कि मैं निर्देशक अनिल शर्मा का प्रशंसक हूँ. उन्होंने कई अच्छी फिल्में बनायी हैं जैसे कि श्रद्धांजलि, हुकुमत, अपने और ग़दर. साथ साथ मैं सन्नी देओल का भी प्रशंसक हूँ.





  

तो जब इस फिल्म में इन दोनों कलाकारों ने पुन: साथ काम किया तो मेरा देखना तो लाजमी ही था.

फिल्म की कहानी है एक ईमानदार कलेक्टर की जो अपना कर्तव्य निभाते हुये खलनायक के हाथों अपनी पत्नी खो देता है. साथ साथ खलनायक उस पर एवं उसके सहयोगी ५ पुलिस अफसरों पर रिश्वत लेने का आरोप लगा कर उनको १६ साल की जेल करवा देता है. कलेक्टर साहब को अच्छे चाल चलन के कारण राज्यपाल ७ साल बाद ही रिहा कर दिया जाता है. अपने जेलर मित्र की प्रेरणा से और अपनी स्वर्गीय पत्नी की इच्छानुसार कलेक्टर साहब बदला लेने के बजाय बदलाव के रस्ते पर चल पड़ते हैं लेकिन छद्म नाम “सिंघ साहब” के साथ अपने आपको सरदार बना कर. उनके द्वारा किये जा रहे समाज कल्याण के कारण बहुत विख्यात हो चुके हैं और उनको खलनायक के शहर में भी बदलाव के लिये निमंत्रित किया जाता है. इस कारण उनका पुन: खलनायक से टकराव होता है. काफी खून खराबे के बाद सिंघ साहब की महानता से खलनायक का ह्रदय परिवर्तन हो जाता है और वो अपने गुनाह कुबूल कर लेता है. इस से सिंघ साहब से बाकी ५ साथियों को भी रिहा कर दिया जाता है. साथ ही वो अपनी ज़्यादातर दौलत समाज कल्याण कार्यों हेतु दान कर देता है. और सिंघ साहब अपने बदलाव के रास्ते पर आगे निकल पड़ते हैं.

इस कहानी ने मुझे इतना उत्सुक बना दिया कि बता नहीं सकता. सन्नी देओल जो अपने ढाई किलो के हाथ के लिए जाने जाते हैं, वो ये गांधीवादी सिंघ साहब बन कर कैसे लगेंगे ? फिल्म के ट्रेलर में तो खूब खून खराबा दिखाया जा रहा है पर कहानी कुछ और कह रही है. और बस यहीं ये फिल्म मुंह के बल गिर गयी. अरे जब आप सन्नी देओल की ही-मेन छवि को ही भुनाना चाहते हैं तो फिर उस पर ये गांधी और विवेकानंद का पर्दा क्यों ? जब आपको एक्शन दिखाना है और हमको भी तालियों और सीटियों के साथ उसे ग्रहण करना है तो फिर शर्म कैसी?


 मगर कुछ हट कर करने की कोशिश में फिल्म के हालत ऐसी हो गयी जैसे “भानमती का कुनबा”. जानकारी हेतु बतला दूँ कि कहावत है “ भानमती ने कुनबा जोड़ा, कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा.”



मुझे डेविड धवन जी ने एक बात सिखाई है जो उन्होंने स्वयं हिंदी सिनेमा के कालजयी निर्देशक मनमोहन देसाई जी के किसी इंटरव्यू में पढ़ी थी. “एक बार आपने फिल्म में जो सुर लगा दिया, पूरी फिल्म उसी सुर में ख़त्म करनी पड़ेगी. अगर फिल्म के बीच आप अपना सुर बदलोगे तो पिट जाओगे.” 
मतलब यह कि अगर आप एक बार अपने सुधि दर्शकों को कल्पना लोक में ले गए हो जहाँ के नियम कायदे आपके अपने बनाए हुये हैं तो फिर उसी सैर में आप उनको दूसरे लोक में नहीं ले जा सकते. दर्शक स्वयं को ठगा हुआ महसूस करते हैं और आप को रिजेक्ट कर देते है.


आप खुद ही इस कथन की सच्चाई परख सकते हैं. यह हर कालजयी, अच्छी फिल्म / कहानी पर लागू होता है. अभी पिछले सप्ताह रिलीज़ हुई “गोलियों की रासलीला : राम लीला” इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है. 

दर्शक आपकी कल्पना से असहमत हो सकते हैं पर वो उसको खराब नहीं बोल सकते है. इस फिल्म को जो बुराइयाँ मिल रही हैं वो इसलिए कि आजकल हम लोग असहमति पर सहमत होना भूल गए है. तो जब भी कोई किसी से असहमत होता है तो वो उसे पूरी तरह नक़ार देता है जो की समाज के विकास के प्रतिकूल है.

खैर वापस सिंघ साहब पर आते हैं. जैसा कि मैंने ऊपर लिखा सर्वप्रथम तो कहानी में ही काफी कान्फ्लिक्ट है. फिर पटकथा और डायलाग पर भी कोई विशेष मेहनत नहीं की गयी. कुछैक गाने जो की आइटम नंबर हैं ठीक हैं मसलन “कल से दारु बंद” और “कत्था लगा के”.

अन्य कास्टिंग में अच्छे अच्छे कलाकार जैसे यशपाल शर्मा, मनोज पाहवा, जानी लीवर आदि कमजोर पटकथा के कारण कुछ भी नहीं कर पाये हैं. सन्नी देओल की पत्नी के रूप में नयी कलाकारा उर्वशी रौतेला हैं जो कि काफी सुन्दर और आत्मविश्वास से भरी लगीं लेकिन उनकी और सन्नी की जोड़ी बेमेल ही दिखी. उम्र का फर्क सम्भालने के लिए २-३ बार सन्नी से कहलवाया गया है कि चाचा बोला था कि उम्र का फर्क ज्यादा है, मत कर शादी.

कुल मिला कर फिल्म में मजा नहीं आया. लेकिन फिर भी इसके जमीन से जुड़े होने के कारण और सन्नी देओल – अनिल शर्मा के साथ होने के कारण फिल्म के प्रति एक उत्साह है जो कि सप्ताहांत के बाद ख़त्म हो जायेगा. अगर फिल्म देख भी लें तब भी सिंघ साहब ग्रेट नही बनेंगे.

Thursday, November 21, 2013

गोलियों की रासलीला "राम-लीला" : मेरी प्रतिक्रिया


कल शाम मैंने यहाँ पुणे स्थित नवनिर्मित सिनेपोलिस मेगाप्लेक्स में  “गोलियों की रासलीला – राम लीला” फिल्म देखी. गौर करें की यह मेगाप्लेक्स है जहाँ १२ विशालकाय स्क्रीन हैं और एक दिन में तक़रीबन ९० फिल्म शो दिखाए जाते हैं. इन १२ में से कम से कम ६ स्क्रीनों पर “राम लीला” फिल्म ही प्रदर्शित की जा रही है. सोमवार शाम को एक ही जगह इतने शो होने के बावजूद हर शो फुल जा रहा है. सिर्फ इसी बात से यह साबित हो जाता है की संजय लीला भंसाली की फिल्म को नज़रअंदाज नहीं किया जाता है.

खैर यहाँ तक तो हम सभी एकमत होंगे. अब आती है फिल्म देखने के बाद मेरी प्रतिक्रिया की. सच कहूँ तो मैंने काफी अरसे बाद एक ऐसी हिंदी फिल्म देखी है जिसके हर गाने पर मैं तालियाँ बजाते हुये (क्योंकि मैं सीटी नहीं बजा पता हूँ) भाव विभोर था, कई सारे डायलाग पर “क्या बात” कहते  हुये सराहना की है, कई जगह पर अलग अलग अभिनेताओं की (विशेषत: रणवीर, दीपिका और सुप्रिया पाठक) से मुग्ध हुआ, एवं इस तरह के असंख्य पहलुओं ने फिल्म मेरे लिए बहुत ही जोरदार बना दी है. यह तय है की मैं यह फिल्म कुछैक बार पुन: देखूंगा.

कई सारे दर्शकों एवं समीक्षकों को फिल्म बहुत लाउड, बहुत अतिश्योक्त लगी. ऐसा भी मानना है की पटकथा, संवाद एवं चारित्र और बेहतर हो सकते थे. मैं इनसे पूर्णत: सहमत हूँ लेकिन मैं यह नहीं मानता की इससे यह फिल्म खराब हो गयी.

सबसे पहले बात करें फिल्म के लाउड और अतिश्योक्त होने की. तो मुझे बतायें कि संजय भंसाली की पहले फिल्म "ख़ामोशी" के अलावा कौन से फिल्म लाउड और अतिश्योक्त नहीं थी. ये उनका सिनेमा है और वो इसी के लिये जाने जाते हैं. उनके सिनेमा का सौंदर्य ही उसके अतिश्योक्त होने में है. और फिर हमारा पूरा भारतीय समाज और संस्कृति भी तो ऐसी ही है. अगर आपको इस फिल्म का अतिश्योक्त होने पर ऐतराज है तो माफ़ कीजिये फिर आपको भारतीय संस्कृति से ही ऐतराज़ है.

 मेरा मानना है की पश्चिमी साहित्य, फ़िल्मों इत्यादि से आजकल हम इतना ज्यादा रूबरू होते हैं कि हमें वही अपना लगने लगता है. इसमें कोई बुराई नहीं है. मेरा तो सिर्फ इतना निवेदन है कि ऐसे लोगों की शिकायत वाजिब तब है जब कि वे पहली बार संजय भंसाली की फिल्म देख रहे हैं. चलिए मान लिया कि आप इस तरह के सिनेमा से परिचित नहीं हैं. लेकिन जो लोग संजय भंसाली के सिनेमा से वाकिफ होते हुये इस फिल्म से ऐसी शिकायत कर रहे हैं वे ऐसे लग रहे हैं जैसे शक्कर की मिठास की शिकायत कर रहे हैं.
                   
अब आती है बात पटकथा, संवाद एवं चारित्र और बेहतर हो सकते थे. बिलकुल हो सकते थे और फिल्मकार ने अपनी सूझबुझ के हिसाब से इनको सर्वश्रेष्ठ ही किया है. मुझे भी लगा कि मध्यांतर के बाद पटकथा उलझ गयी है और पात्र थोड़े कन्फ्यूज़ हो गए हैं. मगर इसके बावजूद फिल्म के पकड कम नहीं हुई जिसका श्रेय फिल्मकार को जाता है. राम के चारित्र में विरोधाभास (contradiction) है. एक तरफ तो वह अहिंसावादी है, स्त्रियों की इज्जत करता है, वहीँ दूसरी ओर वह अपने भाई की फ़िज़ूल की गोलोबारी की नुमाईश पर खुश हो रहा है, औरतखोर है. तो भाई मेरे, ऐसे विरोधाभास से ही तो मनुष्य बनता है. अगर विरोधाभास नहीं होते तो वो परवर दिगार नहीं बन जाता.

कई लोगों को संवाद अश्लील लगे होंगे. यहाँ तक राम और लीला की बेबाक़ चिपटा चिपटी भी कइयों को नागवार हो सकती है. मैं उन लोगों के असहमति से सहमत हूँ पर पुन: कहूँगा कि  इससे यह फिल्म खराब नहीं हो जाती. मैं यह उत्तर नहीं दे सकता की संजय भंसाली ने ऐसा क्यों चुना पर यह बता सकता हूँ कि यह मुझे क्यों अच्छा लगा. फिल्म का परिवेश ग्रामीण है जहाँ ऐसी बेबकता सामान्य है. और फिर आजकल के युवा बातचीत में १० साल पहले के युवाओं जैसे बात नहीं करते हैं. अब केवल लड़के आपस में गाली का प्रयोग नहीं करते बल्कि अब लड़के लड़की दोनों आपस में ऎसी ही बेबाक बातें करते हैं. एक स्तर पर ये अच्छा भी है क्योंकि अब लिंगभेद कम होता जा रहा है. जहाँ तक राम-लीला के कामुक होने की बात है, वे दोनों ही युवा और काफी बिंदास दिखाए गये हैं. और फिर दोनों जिस सुर में अपनी मित्रता की शुरुआत करते हैं पूरे समय उन्होंने वही सुर कायम रखा है. फिर सेक्स क्या प्रेम का हिस्सा नहीं है? तो फिर उन दोनों के बेबाक सेक्सुअलटी के प्रदर्शन में क्या खराबी है?


मुझे तो यह समझ नहीं आता कि जब अनुराग कश्यप “गैंग्स आफ वासीपुर” में मनोज बाजपई और नवाज़ुद्दीन से ऐसी कामुक हरक़त करवाते हैं तो यही समीक्षक उसे अतिश्योकिति से सराहते हैं. ऐसा दोहरापन क्यों ?



याद कीजिये आपने कब एक-एक कलाकार को इतने गरिमामय सौन्दर्य, वेशभूषा, मेकअप वगैरह के साथ पिछली बार देखा था? कब आपने इतनी बारीकियों के साथ बना हुआ सेट देखा था, कब आपने इतने डिटेल के साथ एक काल्पनिक जीवन देखा था? कब इतना मधुर संगीत, बेकग्राउंड संगीत के साथ सुना है? कब मुख्य कलाकारों के साथ सहयोगी कलाकारों ने भी इतना जानदार अभिनय किया है?

और सबसे ऊपर कब एक फिल्मकार ने अपनी कल्पना से बिना कोई समझोता किये, बाक्स आफिस पर उसके परिणाम की चिंता किये बगैर फिल्म बनायी है? वह भी तब जबकि उसकी पिछली २ फ़िल्में फ्लाप थीं. 

वर्तमान हिंदी फिल्मों में तो ऐसा कम ही देखने को मिलता है. क्या करन जौहर, रोहित शेट्टी, यशराज बैनर आदि आज ऐसा सिनेमा दे पा रहे हैं?

गौरतलब है कि कुछ समय पहले यशराज बैनर की “इशक़ज़ादे” आयी थी. वो भी शेक्सपियर के “रोमियो – जुलिएट” नाटक पर आधारित थी. मुझे उस फिल्म से सिर्फ परिणति चोपड़ा का अभिनय याद है और कुछ भी नहीं. देखिये रोमियो – जुलिएट जैसी कालजयी कहानियों के नित नए नए adaptation (अनुरूपण) होते रहेंगे. पर इसका मतलब यह नहीं की हम उस नये काम की उसी पुराने क्लासिक के साथ तुलना करते रहें. हर नाटककार, फ़िल्मकार किसी भी क्लासिक को अपने अनुसार निरुपित करता है और करेगा भी. हम लोग महज उसके परिणाम से सहमत / असहमत हो सकते है और कुछ नहीं.

हाँ अंत में मैं सिर्फ यह और कहना चाहूँगा कि टेक्नालाजी के आसान हो जाने से अब हर कोई हर विषय पर स्वयं को एक्क्स्पर्ट बताने लगा है. ये तथाकथित विशेषज्ञ विशेषत: किसी बड़े व्यक्ति / कार्य की आलोचना करने में असीम आनंद पाते हैं. इस परनिंदा में वे यह भूल जाते हैं की वे मुद्दे से ही भटक चुके है. वैसे भी कहते हैं कला की आलोचना नहीं सराहना होनी चाहिये.