Monday, September 20, 2010

हिन्दी सिनेमा - वर्तमान परिदृश्य - भाग १



वैसे तो आप लोगे मेरे बारे में जानते ही हैं कि मैं मुंबई में हिन्दी फ़िल्म उद्योग में बतौर editor काम कर रहा हूँ. Editing के अलावा मुझे फ़िल्मों के व्यवसायिक पहलू के बारे में जानने की काफ़ी उत्सुकता है. इसलिये मैंने कुछैक फ़िल्में बतौर Executive Producer या Associate Director भी की हैं. फ़िर पिछ्ला १ साल मंदी के चलते मैंने अपने मित्र साईं कबीर के साथ बतौर Associate writer भी कार्य किया है. जिन फ़िल्मों से मैं जुड़ पाया वो हैं - ह्ल्ला, Leaving Home- Life and music of Indian Ocean और सोच लो. इसके अलावा २-१ फ़िल्में अभी निर्माणाधीन हैं. उनके बारे में फ़िर कभी. इन सब अनुभवों के चलते मुझे थोड़ा बहुत ज्ञान हुआ है कि आज के हिन्दी फ़िल्म उद्योग की हक़ीक़त क्या है.

यह सामान्य जानकारी है कि हर साल हमारे यहाँ निर्मित ४०० करीब हिन्दी फ़िल्मों में से मुश्किल से ५% यानि २०-२५ फ़िल्में ही हिट हो पाती हैं या यूँ कहा जाये कि घाटे का सौदा नहीं होतीं हैं. फ़िर भी हर साल निर्मित होने वाली फ़िल्मों की संख्या बढ़ती जा रही है. ऐसा क्यों ?

निरंतर घाटा होते हुये भी यह व्यापार हर वर्ष बढ़ता ही जा रहा है. आखिर इसके पीछे कौन सा Economics है ?

जी हाँ फ़िल्में एक सृजनात्मक कार्य होने के बावज़ूद, इसमें लगने वाले अधिक संख्या के धन के कारण इस क्षेत्र में commerce और economics का भी दखल है.

हिन्दी फ़िल्मों को जो झटका TV और internet के आगमन से लगा है, वह अभी तक उससे उबर नहीं पायी है. आप लोगों ने कभी न कभी किसी पुरानी फ़िल्म जैसे की "छोटी सी बात, रजनीगंधा, सावन को आने दो" आदि को देखते हुये सोचा होगा कि आज ऐसी फ़िल्में क्यों नहीं बनती हैं.


इसका एक कारण TV का आगमन है, जिसने लोगों को घर बैठे ही फ़िल्में उपलब्ध करा दी हैं.

मगर फ़िर आप कहेंगे कि TV के आगमन तो सारी दुनिया में हुआ है. फ़िर इससे Hollywood और दक्षिण भारतीय फ़िल्में क्यों नहीं प्रभावित हुईं ?

इसका उत्तर है इन फ़िल्म उद्योगों की व्यापक पहुँच. आप देखते ही होंगे कि कैसे हर साल Hollywood अपनी पहुँच दुनिया के हर कोने तक बढ़ाता ही जा रहा है. उसी प्रकार दक्षिण भारतीय़ सिनेमा में तेलुगु और तमिल सिनेमा भी निरंतर अपनी पहुँच बढ़ाता ही जा रहा है. वे निरंतर नय़ी technology का उपयोग कर, नये-नये theater का निर्माण कर, अधिक से अधिक भाषाओं में अपनी फ़िल्म dub कर उसे अधिकतम लोगों तक पहुँचा रहे हैं.


आज भी पूरे हिन्दुस्तान के ५०% से भी अधिक film theaters दक्षिण भारत के केवल ४ प्रदेशों में है. और शेष भारत के मुक़ाबले वहाँ आज भी अधिक film theaters का निर्माण हो रहा है. क्या आपको पता है कि इन ४ दक्षिण भारतीय प्रदेशों में आज भी किसी भी film theater में सर्वाधिक ticket price केवल ` 100/- है. वहाँ पर ticket price इससे ज्यादा रखना गैर कानूनी है. इतना ही नहीं दक्षिण भारतीय सिनेमा की pirated copy मिलना लगभग असंभव है. क्योंकि प्रथमत: तो वहाँ piracy करते हुये पकड़े जाने पर ३ महीने की सज़ा का प्रावधान है. यह वहाँ non-bailable offense है.
दूसरा कारण वहाँ के fans group का सक्रिय होना है. यह fan clubs सीधे ही अपने चहेते फ़िल्म सितारे व उसके फ़िल्म निर्माता के संपर्क में होते हैं. कहीं भी अगर उनको कहीं से भी जरा सी भनक पड़ जाती है कि उनके क्षेत्र में कोई उनके चहेते फ़िल्मकार की फ़िल्म की piracy कर रहा है, तो वे तुरंत वहाँ धावा बोलकर सभी pirated copies नष्ट तो करते ही हैं, साथ साथ वे उस व्यापारी को मुँह काला कर पुलिस में भी दे देते हैं.

इसी व्यवस्था के कारण वहाँ ` 175 करोड़ की रजनीकांत अभिनीत फ़िल्म "रोबोट" बन सकती है. और मैं आपको बता दूँ कि सारे trade pundits अभी से ही यह घोषणा कर रहे हैं कि यह फ़िल्म आज तक की सबसे बड़ी super duper hit होने वाली है.



जहाँ वे स्वयं की मौलिक कहानी कहने पर ज़ोर दे रहे हैं, जहाँ वे अपनी फ़िल्मॊं के लिये बड़े से बड़ा बजट रख रहे है और नये-नये प्रयोग कर रहे हैं, वहीं अफ़सोस हिन्दी सिनेमा में ऐसा कुछ नहीं हो रहा है. ऐसा क्यों ?

आखिर जो सिनेमा देश में सबसे बड़ा है, वही सबसे पिछ्ड़ा क्यों है ? उसी में सबसे कम मौलिक कार्य किया जा रहा है, उसी में सबसे ज़्यादा फ़िल्में flop हो रही हैं. आखिर ऐसा क्यों ?

इन सबका जवाब जानने के लिये हमको थोड़ा अतीत में जाना होगा. ७० की सदी में जब हिन्दी सिनेमा की लोकप्रियता सबसे ज्यादा थी, तब के हिन्दी फ़िल्मकारों ने स्वयं को सर्वश्रेष्ठ मान लिया और सभी इस मुग़ालते में जीने लग गये कि we are the best, nobody can beat us. बस जब आप किसी भी क्षेत्र में स्वयं को खुदा समझने लगेंगे तभी से आपका पतन शुरू हो जायेगा.

तब हिन्दी फ़िल्मकारों ने मान लिया कि हम तो इतने बड़े हो चुके हैं कि अब जनता हमारे पास स्वय़ं आयेगी हम क्यों जनता के पास जायें. इसलिये ८० के दशक में आप पायेंगे कि अचानक से नये theater बनना बंद हो गये, जो थे वे भी इस तरह चलाये जाने लगे कि जैसे हम दर्शकों पर कोई एहसान कर रहे हैं. उन theaters रख-रखाव व व्यवस्थापन के स्तर में अचानक कमी आ गयी जिसके कारण आम जनता को बेहद दुख हुआ. बड़े बड़े शहरों के सर्वश्रेष्ठ theaters की दशा ये होने लगी थी कि वहाँ लोग परिवार समेत जाने में हिचकने लगे थे. इसलिये उन लोगों ने TV को मजबूरी में सिनेमा का पर्याय स्वीकार कर लिया.

इसका अपवाद शायद मुंबई के theaters थे जो कि सन २००० तक अपनी शानो शौकत बरकरार रखे हुये थे. पर उनमें से भी ज़्यादातर या तो अब बंद हो गये हैं या फ़िर उनको multiplex में परिवर्तित कर जा चुका है. यह निर्विवाद सच है कि सन ८० से २००० तक हिन्दी भाषी शहरों में फ़िल्म theaters की संख्या में कमी आयी थी.

इसके साथ ही उस दशक में बनने वाली फ़िल्में भी शायद उपरोक्त दंभी फ़िल्मकार ही बना रहे होंगे और उसका असर हम सबने देखा है. मुझे आज भी याद है सुभाष घई ने जब "यादें" फ़िल्म का मुहूर्त लंदन में किया था तो उन्होंने कहा था कि "मैं फ़िल्म NRI audience के लिये बनाना चाहता हूँ क्योंकि ये मुझे डालर और पाउन्ड में पैसा देते हैं. वहीं यू. पी., बिहार के दर्शक चंद रूपयों में फ़िल्म देखते हैं. तो मैं इनके लिये फ़िल्म क्यों बनाऊँ. ?". यहाँ ये बताना ज़रूरी है कि तब से घई साहब जो कि एक समय showman माने जाते थे वे अब एक hit फ़िल्म के लिये तरस रहे हैं.



सन १९८८ में सिर्फ़ २ फ़िल्म hit हुई थीं "क़यामत से क़यामत तक और तेजाब”. शेष सारी फ़िल्मों का सूपड़ा साफ़ हो गया था. यह दौर भी सन ९५-९६ तक चला "जब हम आपके कौन" ने सफ़लता के अप्रतिम झंडे गाड़ कर दर्शकों को वापिस theater में खींचा. पर तब तक अधिकांश theater या तो दम तोड़ चुके थे या मृत्युशैय्या पर थे.



इस तरह एक ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गयी कि सिनेमाघरॊं की कमी के कारण फ़िल्मों की माँग में बेहद कमी आ गयी जबकि उसकी उत्पादन संख्या निरंतर बढ़ती रही. इसके चलते जो छोटी फ़िल्में बनीं वे सिनेमाघर तक कभी पहुँच ही नहीं पायीं. वे या तो डब्बाबंद हो गयीं या फ़िर जैसे तैसे TV VDO के जरिये अपने दर्शकों तक पहुँची. इस में कई बेहतरीन, मौलिक किंतु छोटे बजट की फ़िल्मॆं - YMI, आमरस, मिथ्या आदि, कुर्बान हो गयीं.


तब हिन्दी फ़िल्म उद्यॊग ने इस समस्या का अद्भुत हल निकाला - Multiplex. उन्होंने सरकार से सिनेमा को प्रोत्साहन के नाम पर tax holiday ले कर आलीशान mall cum multiplex खड़े कर डाले. जहाँ पहले एक सिनेमाघर होता था, वहाँ अब ४-५ सिनेमाघर हो गये. इस तरह ज़्यादा उत्पन्न हो रहीं फ़िल्मों के लिये ज्यादा सिनेमाघर बन गये.

मगर क्या ये multiplexes खोये हुय़े दर्शकों को वापिस ला सके? जवाब सिर्फ़ एक है - नहीं !

Multiplexes ने निःसंदेह ज्यादा screens मुहय्या करवा दीं पर टिकीट खरीदकर फ़िल्म देखने वालों की संख्या कम कर दीं. मैं अपने जैसे कई फ़िल्म प्रेमियों को जानता हूँ जो single screen theater में लगने वाली हर फ़िल्म देखते थे और हम ऐसा इसलिये कर पाते थे क्योंकि फ़िल्म के टिकीट के भाव हर व्यक्ति की जेब के अनुसार होते थे. ` १० से लेकर ` ६० तक कम से कम ३ दरजे होते थे. मगर multiplexes में अधिकतर टिकीट का मूल्य ` १५० से ` २५० तक होता है. और पहले weekend पर तो यह मूल्य ` २०० से ` ३५० तक हो जाता है. आज मैं एक भी ऐसे फ़िल्म-प्रेमी को नहीं जानता हूँ जो कि इन multiplexes में जाकर हर फ़िल्म देखते हैं. कुछैक हैं जो कि सारी तो नहीं पर सप्ताह की एक फ़िल्म ज़रूर देखते हैं. मगर इन लोगों की संख्या उगलियों पर गिनी जा सकती है.

मैं दावे के साथ कहता हूँ कि अगर सभी multiplex अपने हर hall में आगे की 3 rows को सिर्फ़ ` ५० प्रति सीट करें तो ये सभी seats हमेशा full रहेंगी और multiplexes को houseful की जगह rowful का बोर्ड तो अवश्य लगाना पड़ेगा.

Multiplexes का एक और दुष्प्र्भाव जो हुआ वह है सिनेमा देखने की सामूहिक, लोकतांत्रिक (democratic, communal) भावना का क्षरण (loss).

जहाँ single screen theater में विभिन्न आय वाले लोग अलग - अलग दरजे में ही सही, कम से कम एक साथ फ़िल्म देखते थे, वहीं multiplexes में सिर्फ़ एक जैसी आय व हैसियत वाले व्यक्ति ही फ़िल्म देखते हैं. यह हक़ीक़त cinema की democratic spirit के बिलकुल खिलाफ़ है.


एक और चीज़ जो हिन्दी सिनेमा के पतन के लिये जिम्मेवार है वह है satellite TV का प्रसार. जहाँ पहले किसी भी कस्बे, गाँव में जब भी फ़िल्म पहुँचती थी उसको बिलकुल नई फ़िल्म की तरक लोग तत्परता से देखते थे. वहीं अब satellite TV पर फ़िल्म के promos और trailers की निरंतर उपलब्धता से हर गाँव, हर कस्बे में यह पता रहता है कि यह फ़िल्म कब रिलीज़ होने वाली है. और सभी सामान्य जनता के जैसे इन गाँव, कस्बों में भी लोग फ़िल्म पहले दिन ही देख लेना चाहते हैं. और जब उनको वह फ़िल्म अपने पास के सिनेमाघर (जो कि नदारद है) में नहीं मिलती तो वे piracy copy खरीद कर अपनी कुतुहूल शांत करते हैं.


तो भाई साहब हिन्दी भाषी दर्शक के लिये या तो फ़िल्म उनकी पहुँच से बाहर है या फ़िर उनकी जेब से बाहर है.

तो ऐसी परिस्थिति में कोई भी व्यक्ति क्या करेगा ?

चोरी... जी हाँ चोरी.


इसके अलावा क्यों Hindi cinema quality के स्तर पर गिर रहा है, इसके चर्चा हम अगली post में करेंगे.

Sunday, September 5, 2010

PEEPLI LIVE - After Thoughts!

इस समय मैं असमंजस में हूँ कि मुझॆ अपने विचार किस भाषा में रखने चाहियें.
मुझे पता है कि अगर मैं English में खुद को express करता हूँ तो वह ज्यादा लोगों तक पहुँचने की गुंजाईश रखता है पर मेरा यह भी मानना है कि मुझे अपने विचार अपनी मातृभाषा में express करने चाहिये क्योंकि आखिरकार ये मेरी मातृभाषा है. पर क्या असल में हिन्दी अब मेरी मातृभाषा बची है? अब तो मैं भी ज्यादातर या तो अंग्रेज़ी बोलता हूँ या Hinglish. मेरे ख्याल से मुझे Hinglish का ही प्रयोग करना चाहिये.पीपली लाइव मैं शुकरवार को ही देखना चाहता था पर उसी दिन Indian ocean का मुंबई में concert होने के कारण मैं फ़िल्म नहीं देख पाया. बहरहाल मैंने फ़िल्म शनिवार रात को चंदन theater में देखी. यहाँ मैं बताना चाहूँगा कि चंदन मुंबई के कुछ ही बचे single screen theaters में हैं. और वहाँ आम जनता के साथ फ़िल्म देखने का मजा ही कुछ और है. मैं वैसे भी multiplex theaters में फ़िल्म देखने के पक्ष में नहीं हूँ क्योंकि वहाँ टिकीट बहुत महंगा होता है और शायद इसीलिये वहाँ फ़िल्म देखते समय आदमी बहुत बड़ा critic हो जाता है. पर चंदन जैसे theater में दर्शक फ़िल्म को इतने कड़क नज़रिये से नहीं देखते हैं और पूरी तरह मगन हो कर फ़िल्म का लुत्फ़ उठाते हैं.

तो खैर मैं अपने एक दोस्त के साथ शनिवार रात फ़िल्म देखने चंदन गया. चंदन में आज भी शनिवार – इतवार के evening और night shows ke टिकीट black में बिकते हैं. और कल भी फ़िल्म houseful थी. इसका श्रेय आमिर खान और उनकी पूरी marketing team को जाता है जिनके शानदार काम के कारण एक निहायत छोटे बजट की, बिना star-cast की film जो एक ग्रामीण आदमी की कहानी है और जिसमे कहने को शायद एक भी regular film masala नहीं है, ऐसी फ़िल्म को houseful opening लगती है औरि इतना शानदार critical response मिला है.

(Contd.After a month)

आज तक यह फ़िल्म ` 35 kकरोड़ का व्यवसाय केवल हिन्दुस्तान में कर चुकी है. इस प्रकार यह इस साल की सफ़लतम फ़िल्मों में एक है. अभी इतवार को ही प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह ने भी यह फ़िल्म देखी और इसकी भरपूर सराहना की. मैं यह सब इस लिये बता रहा हूँ क्योंकि मैं भी यह मानता हूँ कि यह एक काबिले-तारीफ़ फ़िल्म है.

मेरे कई मित्रों को यह फ़िल्म बहुत बक़्वास भी लगी है. मेरे अनुसार उनको ऐसा इसलिये लगा क्योंकि शायद वो फ़िल्म की publicity एवं amir khan factor के चलते बहुत ज्यादा उम्मीद ले कर फ़िल्म देखने गये होंगे.

वे शाय3-idiots उम्मीद कर रहे थे जबकि ये फ़िल्म एक सीधी सादी, सरल फ़िल्म है जिसकी 3 idiots से सिर्फ़ एक समानता है और वह है आमिर खान वह भी अभिनेता के रूप में नहीं, मगर निर्माता के रूप में. मगर यह अहम फ़र्क शायद साधारण व्यक्ति को समझ पाना मुश्किल है.

दूसरी वजह शायद है इस फ़िल्म में दिखाई गई सच्चाई जो कि बेहद क्रूर और बेबाक है. जब कभी हम किसी निर्विवाद व कठोर सच्चाई का सामना करते हैं तो या तो हम एक दम सन्न, शांत हो कर स्वीकार कर लेते हैं या फ़िर हम उस सच्चाई को एकदम से खारिज कर देना चाहते हैं क्योंकि उसे स्वीकार करना हमारे बस में नहीं है. पीपली live फ़िल्म ने हमारे इस सच को भ्रम साबित कर दिया कि “AAL ISS WELL”. जिस हिन्दुस्तान को हम आगामी महाश्क्ति मानते हैं उसकी असल स्थिति क्या है? और यकीन मानिये इसे स्वीकार करना उतना ही शर्मनाक है जितना घ्रृणित फ़िल्म के एक दृश्य में इंसानी टट्टी को पर्दे पर देख पाना.

मगर फ़िर भी मेरे लिये यह एक कालजयी फ़िल्म नहीं हैं. इसके कारणों की ही मैं यहाँ चर्चा करना चाहता हूँ.

यह फ़िल्म कभी भी इसके मुख्य पात्र नत्था और उसके परिवार की पीड़ा को ठीक से उकेर

नहीं पायी. या यूँ कहिये कि हम उन पात्रों को केवल उतना ही जान पाये जितना कि फ़िल्म में दिखायी गयी media ने जाना जो कि एक निहायत ही tourist point-of-view है, जिसमें हैरत ज्यादा और समझ कम होती है. इसलिये एक समय के बाद दर्शकों के लिये भी ये पात्र हास्यापद व हैरतमयी हो गये थे. हम कभी उनकी सच्ची पीड़ा को समझ ही नहीं पाये. नत्था के अलावा उस हंगामें में उसके अन्य परिजनों पर; विशेषतः उसकी पत्नी और बच्चों पर क्या बीत रही होगी, हम यह समझ ही नहीं पाये.

वहीं दूसरी तरफ़ हम सामान्य media की रोज़मर्रा की जद्दोजहद, उसका उथलापन, उसका झूठा आवरण आदि, सब ठीक से समझ पाये. य़ही हाल फ़िल्म मे दिखाये गये राजनीतिज्ञ व नौकरशाही पर भी लागू होती है. उनको हम बहुत थोड़े में ही सही मगर पूर्णतः समझ पाये.

क्या इसका कारण यह है कि फ़िल्मकार अनुषा रिज़वी के लिये media, politics और bureaucracy काफ़ी देखीभाली दुनिया है, लेकिन हिन्दुस्तान के गाँव और वहाँ का ग्रामीण जीवन उनके लिये एक दूसरी दुनिया है जिससे उनका वास्ता सिर्फ़ एक सैलानी की तरह है.

अनुषा फ़िल्म में एक बेहद मार्मिक पात्र लायीं होरी महतो.

जो लोग मुंशी प्रेमचंद के किरदारों से वाकिफ़ हैं यह नाम उनको तुरंत उनके कालजयी उपन्यास गोदान की याद दिला देगा. लेकिन जो टीस मुझे गोदान के होरी के लिये होती है वह मुझे फ़िल्म के होरी के लिये नहीं होती. क्योंकि मेरे अनुसार मुझे इस होरी से जुड़ने का पर्याप्त मौका ही नहीं दिया गया. पूरी फ़िल्म में होरी सिर्फ़ ४-५ बार दिखाया जाता है. इससे पहले कि मैं इस पात्र को समझ सकूँ उसकी मृत्यु हो जाती है. उसके बारे में, उसकी जीजिविषा के बारे में हम उसकी मृत्योपरांत जानते हैं, तब वह जानकारी सिर्फ़ ऐसा प्रभाव छोड़ती है जैसा कि किसी अपरिचित की शोक सभा में गलती से पहुँचे हुए व्यक्ति पर प्रभाव पड़ता है. वह सिर्फ़ माहौल की नज़ाकत के अनुसार २ मिनिट का शोक रख लेता है, जबकि वह इस मौत से बिलकुल अप्रभावित है. मेरे अनुसार फ़िल्म में होरी की मौत एक बहुत बड़ा ह्दय-विदारक क्षण था, मगर वह मुझ तक नहीं पहुँचा.


एक चीज जो वर्तमान के नये फ़िल्मकारॊं के साथ देखने में आती है, वह है उन लोगों का फ़िल्मों में गीतों के साथ सौतेला व्यवहार. अब आप इसी फ़िल्म में देखिये. इस फ़िल्म में ४ बेहतरीन गाने हैं- देस मेरा, महंगाई डायन, चोला माटी के राम और ज़िंदगी से डरते हो. ये सभी गाने न सिर्फ़ मधुर हैं, ये बहुत प्रभावकारी गीत भी हैं. हर गीत के शब्द बहुत उम्दा हैं और सुनने वाले को झंझोड़ देते हैं मगर फ़िल्म देखने में यह साबित नहीं होता.
यहाँ मैं मेरी हमेशा की मनपसंद फ़िल्म मदर इंडिया का ज़िक्र करना चाहूँगा जिसके गीत बहुत लोकप्रिय तो थे ही वे फ़िल्म में भी बहुत सश्क्त रूप से पेश भी किये गये थे.

देस मेरा को फ़िर भी फ़िल्म में ठीक तरह से पेश किया गया है, मगर शेष तीनों गाने फ़िल्म में बर्बाद हो गये.

अनुषा जी ने एक समारोह में बताया था कि महंगाई डायन गाना फ़िल्म की पटकथा में कहीं नहीं था, लेकिन जब उन्होंने शूटिंग के दौरान यह गाना सुना तो उन्होंने उसे फ़िल्म में डालने का निर्णय लिया. लेकिन फ़िल्म में उन्होंने पूरा गाना न डाल कर केवल पहला मुखड़ा डाल कर अपना कर्त्तव्य निर्वाह कर लिया. मेरा मानना है कि या तो आप गाना न ही डालते और जब डाला है तो उसका पूरा सदुपयोग करते. जितनी देर के लिये यह गाना पर्दे पर आता है उतनी देर में तो उसका मूड बनता ही है. इससे पहले कि दर्शक उसे आत्मसात करे गाना हट जाता है. इससे मुझे प्रसन्नता कम और खीझ ज्यादा हुई.

चोला माटी की तो और ज़्यादा मट्टी पलित हुई. यह गाना हमे जीवन की क्षण भंगुरता का अहसास कराता है. हमें व्यक्तिगत अहं व भेद-भाव से उपर उठ कर अच्छा इंसान बनने की प्रेरणा देता है. लेकिन फ़िल्म में जिस तरह से इसका उपयोग हुआ है, हम इसके प्रभाव से पूर्णतः अछूते रह जाते हैं. मुझे तो यह भी याद नहीं कि ये गाना फ़िल्म में आता कहाँ हैं. शायद फ़िल्म के अंत में. अगर यही गाना फ़िल्म में तब आता जब कि होरी का मृत शरीर उसके ही द्वारा खोदे गये गड्डे में मिलता है. मैं दावे के साथ कहता हूँ कि यहा गाना दर्शकों की आत्मा तक को झंझोड़ देता था.

और जब तक कि हम चोला माटी के प्रभाव से उबर पाते, ज़िंदगी से डरते हो गाना media, politicians, bureaucrats और साधारण जनों के चेहरों पर आता तो वह बिलकुल सटीक बैठता. मेरा मानना हैं कि उस स्थिति में दर्शक फ़िल्म खत्म होने पर भी नहीं उठते अपितु अपनी कुर्सी पर बैठे सोचते रह जाते. लेकिन यह गाना तो end credits के साथ आया, उस समय जब सभी दर्शक जल्द से जल्द theater से बाहर निकलने में प्रयत्नरत रहते हैं. शायद Indian Ocean Band के सभी फ़िल्मी गानों की नियति end credits ही है. Black Friday में भी उनका सर्वाधिक लोकप्रिय गीत "बंदे" end credits में ही आया था.

खैर फ़िल्म तो बन भी गयी, रिलीज़ भी हो गयी और super-hitभी हो गयी. हाँ अगर अनुषा सिर्फ़ Art-house film की grammar के साथ थोड़ी commercial film की grammar भी प्रयोग करतीं तो यह फ़िल्म आज की मदर इंडिया हो सकती थी.