Tuesday, March 24, 2015

NH10 – इण्डिया से भारत की यात्रा

हाल ही में प्रदर्शित हुई नवदीप सिंह निर्देशित फिल्म “NH10” देखी | ये वही नवदीप सिंह हैं जिन्होंने “मनोरमा ६ फीट अंडर” जैसी बेहतरीन फिल्म निर्देशित की थी.
इस फिल्म की कहानी गुडगाँव में कार्यरत एक प्रोफेशनल पति-पत्नी (अर्जुन – मीरा) की है जो कि छुट्टी मनाने एक रिसोर्ट के लिए जा रह होते हैं | लेकिन रास्ते में उनका सामना कुछ ऐसी परिस्थितियों से होता है जिसमें कुछ लोग उनके खून के प्यासे हो जाते हैं | किस तरह से मीरा उन खूनी हमलावरों का सामना करती है और अपनी जान बचाती है, यही फिल्म का लब्बो-लुवाब है |
  • तो फिर क्या ये फिल्म महज इंतनी सी है ?
  • फिर क्यों इस फिल्म की इतनी तारीफ़ हो रही है ?
  • क्यों इस फिल्म को बदलते हिंदी सिनेमा का उदाहरण माना जा रहा है ?

मैं इन सवालों का जवाब देने की कोशिश करता हूँ | फिल्म की कहानी सीधी सरल है, शिकार और शिकारी की तनातनी और संघर्ष की | ऐसी कहानी हम बचपन से पंचतंत्र, जातक कथाएं, रामायण, महाभारत इत्यादि से सुनते आ रहे है | और जैसा इन अभी कहानियों में होता आया है कि अगर शिकार कोई निर्दोष, मासूम है तो वो येन-केन-प्रकारेण अंत में बच जायेगा और शिकारी का अंत कर देगा | यही इस फिल्म में भी है | लेकिन जो बात इस फिल्म को बहुत ऊँचा उठा देती है वो है इसका वातावरण, इसका प्रस्तुतिकरण और वास्तविकता से इसकी निकटता |
Arjun-Meera
फिल्म के मुख्य पात्र अर्जुन – मीरा बड़ी कंपनी में ऊँचे पद पर कार्यरत पति-पत्नी हैं जो कि उच्च शिक्षित, आज़ाद खयाल, अंग्रेजी में वार्तालाप करने वाले, ऊंची तनख्वाह पाने वाले, हाई क्लास सोसायटी में विचरने वाले व्यक्ति हैं | ये लोग एयर कंडिशन में ज़िन्दगी जीते हैं, बिसलेरी का पानी पीते हैं, आलिशान घरों में रहते है और महंगी विदेशी गाड़ियों में घूमते हैं यानि की ये हमारे देश के श्रेष्ठी वर्ग से हैं | इन लोगों को अपनी जाति, गोत्र आदि नहीं मालुम है |  ये हमारे देश का वो वर्ग है जिसकी संख्या अनुमानत: महज १०-१५ प्रतिशत होगी, लेकिन ये देश के बाकी 85 प्रतिशत की ज़िन्दगी का निर्धारण करते हैं | और शायद इसीलिए इस वर्ग के लोग स्वयं को बाकी देश से श्रेष्ठ समझते हैं | उनके पास विश्व की हर समस्या पर अपनी राय है भले वे उस समस्या को भली भांति समझ पाए हों या नहीं |
ये वो ही  वर्ग है जो अपनी अपनी बहुराष्ट्रीय कंपनी के ज़रिये ये निर्धारित करते हैं कि बाकी के देशवासी क्या खायेंगे, क्या पहनेंगे, कहाँ रहेंग इत्यादि इत्यादि | कुल मिलाकर ये लोग Shining India में रहते है | और अगर सच कहूँ तो हम में से अधिकतर या तो इस Shining India का या तो हिस्सा हैं या इसका हिस्सा बनने की आकांक्षा रखते हैं | जिस तरह अंग्रेजी के पीछे अंधाधुंध दौड़ते हुए हम अपनी मातृभाषा से दूर होते जा रहे हैं, उसी प्रकार Shining India का हिस्सा बनने के चक्कर में हम असली भारत को या तो भूल चुके हैं या उससे मुंह मोड़ चुके हैं | हम खुशबूदार एयर कंडिशन घर, दफ्तर और गाडी में रहते हुए भूल चुके हैं कि माटी की असली गंध क्या है ?
और अब अगर कभी हमें उस असली हवा में सांस लेनी पड़ती है तो वो हमें बहुत बदबूदार, असहनीय लगती है| लेकिन आप असलियत से कब तक मुंह चुराए रह सकते हैं ? एक न एक दिन तो वो आपके सामने आ कर खड़ी होगी ही, तब आप क्या करेंगे ?
इस फिल्म को देखने के बाद अधिकाँश दर्शकों को डर लगता है, वे असहज हो जाते हैं, उसका कारण सिर्फ ये है कि ये फिल्म सभी दर्शकों को भारत की उन सच्चाइयों से रूबरू कराती है जिनसे हम नज़रे चुरा रहे हैं |
मसलन मीरा एक दृश्य में प्रेजेंटेशन दे रही हैं और सुझाव दे रही हैं कि उनकी कंपनी जो स्त्रियों के लिये नया उत्पादन बना रही है वो कैसे खरीदा जाएगा और उसका नाम क्या होना चाहिये | वो उत्पाद यकीनी तौर पे सेनेटरी नेपकिन है जो कि हर महिला की एक नैसर्गिक ज़रूरत है | मीरा बताती हैं कि चूँकि भारत में अधिकांश महिलायें शर्म के कारण दूकान से ये चीज़ स्वयं नहीं खरीदतीं हैं, और इन महिलाओं के अधिकांश मर्दों को ये चीज़ खरीदना अपनी मर्दानगी पे धब्बा जैसा लगता है, इसलिए वे महिलाएं ज्यादातर ये चीज़ घर, पास पड़ोस के बच्चों के द्वारा खरीदती हैं | और चूँकि एक बच्चा इस उत्पाद को खरीदने आता है, इस उत्पाद का नाम ऐसा होना चाहिये जो हर बच्चा आसानी से ले सके | इस प्रेजेंटेशन के उपरान्त मीरा का एक पुरुष सहकर्मी उस पर कटाक्ष करता है कि मीरा को महिला होने के कारण बॉस से फायदा मिलता है |
इमानदारी से जवाब दीजिये, क्या ये सच नहीं है कि हम भारतीय बहुत भेद भाव करते हैं ? जाति, भाषा, रंग, लिंग, खान पान, पहनावा, आर्थिक स्थिति, धर्म इत्यादि किसी के भी आधार पर ? इस रोग से कोई भी अछुता नहीं है, राजा से रंक तक, अमीर से गरीब तक, भेद भाव करने की प्रवृत्ति हम सबमे बहुत गहरी पैठ चुकी है | यही भेद भाव हमारे देश में व्याप्त भ्रष्टाचार का मुख्य कारण है | इस फिल्म में ही देखिये कि समाज की सटीक जानकारी पाकर कोई भी कंपनी समाज में व्याप्त बुराइयों के उन्मुलन के लिए कोई प्रयत्न नहीं करती अपितु उस जानकरी से कैसे स्वयं का फायदा हो यही जुगत लगी रहती है जो कि मीरा के प्रेजेंटेशन से जाहिर होता है |
इसी प्रकार अपने अभिजात्य जीवन में मीरा और अर्जुन काफी उन्मुक्त हैं | इस रिश्ते में शायद मीरा का पलड़ा भरी भी है | वो बेझिझक अर्जुन के साथ मजाक करती है, उसे रिझाती है, छेड़ती भी है | लेकिन जैसे ही वो सड़क पर अकेली होती है, कई मर्द उसके अकेलेपन का फायदा उठाना चाहते हैं | और उस पर तुर्रा ये कि इस अराजकता के सामने पुलिस भी कुछ नहीं कर पा रही है | फिल्म में जब भी पुलिस से मीरा का सामना हुआ, पुलिस अधिकारियों ने कोई कार्यवाही करने के बजाय यही समझाइश दी कि आप भारत की हकीकत को समझें | अगर इससे आपको डर लगता है तो बेझिझक अपने पास बन्दुक रखें |
वो ये भी कहते हैं कि जाति भेद ने गरीब और पिछड़ों को अलग थलग किया हुआ है | अगर ये तबके एक हो जायें तो अमीर और श्रेष्ठी वर्ग से अपना हिस्सा कबका छीन चुके होते ?
इन सच्चाइयों से जब दर्शक का सामना होता है तो वो अंदर से सिहर उठता है क्योंकि कहीं गहरे मन में वो जानता है कि India और भारत के बीच की ये जो खाई है दिन पे दिन बढ़ती जा रही है | एक दिन ऐसा जरुर आयेगा कि ये भेद इतना बढ़ जायेगा कि दोनों पक्ष एक दुसरे का मुंह भी देखना पसंद नहीं करेंगे |
ये फिल्म एक और मुद्दा छेड़ती है कि कोई किस हद तक किसी दुसरे के मामले में दखल दे सकता है ? क्या आज के दौर में किसी के साथ अन्याय होता देख इसके खिलाफ आवाज़ उठाना सुरक्षित है ? और सबसे बड़ी बात कि हमारे देश में जाति, गोत्र, मजहब पे आधारित भेद- भाव इतना गहरा है कि वो माँ को बेटी का दुश्मन बना सकता है | समाज के ज़िम्मेदार प्रशासक, नेता, पुलिस कोई भी इस भेद-भाव से अछुता नहीं है |
जब ये बात सामने आती है तो महसूस होता है कि हमारा प्रजातंत्र महज एक भुलावा है | यहाँ सिर्फ जंगल राज है |

Navdeep Singh
फिल्म का तकनीकी पक्ष काफी मजबूत है | छायांकन, सम्पादन, साउंड और पार्श्व संगीत; सभी मुक़म्मल हैं | आप कहीं कोई त्रुटी नहीं बता सकते | अनुष्का शर्मा के नेतृत्व में फिल्म के सभी कलाकार एक से बढ़कर एक हैं | फिल्म आपको पूरी तरह बांधे रखती है | इसका पूरा श्रेय निर्देशक नवदीप सिंह को जाता है |

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