Tuesday, January 21, 2014

डेढ़ इश्क़िया



मैं शुरू में ही स्पष्ट कर देना चाहता हूँ की मुझे “इश्क़िया” फिल्म कोई ख़ास नहीं लगी थी.

हालाँकि उस फिल्म से मेरे FTII  के कुछ सहपाठी जुड़े हुए थे, और उस फिल्म में वर्तमान हिंदी सिनेमा के दो सबसे बेहतरीन किरदार “खालुजान” और “बब्बन” थे, लेकिन फिर भी कोई ख़ास कहानी नहीं बन पायी.
 इन दोनों किरदारों को जो भोपाली भाषा में संवाद दिए गये और जिस तरह से नसीर साहब और अरशद वारसी ने इन किरदारों को निभाया, वही इस फिल्म की लोकप्रियता का मुख्य कारण थे. विद्या बालन और फिल्म के संगीत ने फिल्म को नि:संदेह और बेहतर बनाया था.
इसलिये मैं “डेढ़ इश्क़िया” के लिए कोई ख़ास उत्साहित नहीं था. साथ ही फिल्म का संगीत भी इतना लुभावना नहीं था कि मुझे थियेटर तक आकर्षित करता. लेकिन फिर जब अन्य मित्रों ने इस फिल्म को देख कर इसकी तारीफ़ करना शुरू की, तो मुझे लगा कि फिल्म देख लेनी चाहिये और कल मैंने इस काम को अंजाम दे ही दिया.
फिल्म की कहानी लगभग “इश्क़िया” के समान ही है. खालुजान और बब्बन, दो आशिकमिजाज लेकिन बहुत सीधे, शातिर पर शरीफ चोर हैं. वे दोनों मुश्ताक़ भाई नाम के एक दादा से अपनी जान बचाते फिर रहे हैं क्योंकि उन लोगों से मुश्ताक़ भाई का कुछ बड़ा नुक्सान हो गया था. इस भागा-दौड़ी में उन लोगों की टक्कर बहुत खुबसुरत औरत से होती है और दोनों अपना दिल दे बैठते हैं.



इश्किया में जहाँ दोनों एक ही औरत विद्या बालन के इश्क में पड़ जाते हैं, डेढ़ इश्क़िया में दोनों अलग-अलग औरतें माधुरी दीक्षित और हुमा क़ुरेशी से इश्क़ फरमाने लगते हैं. बस इन दोनों फिल्मों में सिर्फ इतना ही फर्क है. जैसे  इश्क़िया में विद्या बालन दोनों की आशिकी का गलत फायदा उठती है, यहाँ भी माधुरी और हुमा इन दोनों आशिकों के माध्यम से अपना उल्लू सीधा करती हैं और अंत में दोनों केवल हाथ मलते रह जाते हैं.
ये एक काबिलेगौर बात है कि समान कहानी होते हुए भी अगर कहानी की सेटिंग बदल दी जाये तो कैसे पूरी फिल्म नयी लगाने लगाती है. जहाँ इश्क़िया ग्रामीण परिवेश में सेट की गयी थी वहीं डेढ़ इश्क़िया कस्बे में सेट की गयी थी. वहां विद्या एक अनपढ़ ग्रामीण औरत थी तो यहाँ माधुरी उच्च वर्ग की बेहद ज़हीन, तहजीबदार, तमीज़दार औरत है जो कि एक नवाब की बेवा है. बाकी सबकुछ दोनों फिल्मों में अलबत्ता समान है. दोनों नायकों को उनकी नायिकाएं आसानी से न मिल जायें तो विलेन भी हैं, मुश्ताक़ भाई भी और कई सारे मनोरंजक सहायक किरदार भी.
और शायद इसीलिए ये फिल्म बांधे रखती है. 


अगर आप पटकथा पर गौर करेंगे तो उसमें कई त्रुटियाँ हैं, लेकिन सभी अभिनेताओं के सधे हुए अभिनय, बेहतर गढ़े हुए पात्र, ज़मीनी मगर उम्दा संवाद के कारण फिल्म की पकड़ रहती है. लेकिन शायद यही वजह है कि ये फिल्में कभी मुन्नाभाई सीरिज़ जैसी फिल्में नहीं बन सकती हैं नहीं तो देखिये दोनों में कितनी समानता है. दोनों फिल्मों में दो किरदार हैं जो अलग अलग रोमांचक परिस्थितियों में जा कर अपना लक्ष्य पाने के लिए मुश्किलों से उलझाते हैं और अंत में  अपनी मंजिल पाते हैं. लेकिन अपने बेहतरीन स्क्रीनप्ले के कारण जहाँ मुन्नाभाई की फ़िल्में हैं, इश्किया उसके आस पास भी नहीं है. 


डेढ़ इश्क़िया एक ऐसी यात्रा है जो जब तक चलती रहती है यात्री को मजा आता रहता है लेकिन जब यात्रा ख़त्म हो जाती है तो वह सोचता है कि ये मैं कहाँ आ पहुंचा? खैर यह भी अपने तरह का सिनेमा है और मैं इसके विरुद्ध नहीं हूँ.

डेढ़ इश्क़िया एक टाईम पास मनोरंजन है. लेकिन इस फिल्म को मैं एक बहुत बड़े कार्य के लिये धन्यवाद देना चाहता हूँ. इस फिल्म ने हिंदी फिल्मों में भाषा के जादू को पुन: स्थापित किया है. ज़मीनी पात्र और उनके द्वारा बोली गये ज़मीनी भाषा, जैसाकि इस फिल्म में दो भोपाली चोर जिस भोपाली हिंदी में बात करते हैं, दर्शकों को बहुत पसंद आते हैं. ज़रूरत है केवल अच्छे किरदारों को रोचक परिवेश में गढ़ने की. साथ साथ इस फिल्म में मुशायरा जैसी लुप्त होती संस्कृति को पुन: दर्शकों के सामने परोसा है. शेरो शायरी से बात कितनी गाढ़ी हो सकती है, ये इस फिल्म से आभास हो जाता है.

संवाद, अभिनय के अलावा कैमरावर्क, ड्रेस डिज़ाइन, आर्ट डाइरेक्शन आदि भी शानदार है. अगर इसका संगीत भी इश्क़िया जैसा होता तो बात कुछ और ही हो जाती. लेकिन फिर भी कुल मिला कर एक बार देखे जाने लायक फिल्म है.


1 comment:

gour abhishek said...

i do agree the film serves delicious flavor of acting, language and comedy