कल शाम मैंने यहाँ पुणे
स्थित नवनिर्मित सिनेपोलिस मेगाप्लेक्स में
“गोलियों की रासलीला – राम लीला” फिल्म देखी. गौर करें की यह
मेगाप्लेक्स है जहाँ १२ विशालकाय स्क्रीन हैं और एक दिन में तक़रीबन ९० फिल्म शो
दिखाए जाते हैं. इन १२ में से कम से कम ६ स्क्रीनों पर “राम लीला” फिल्म ही
प्रदर्शित की जा रही है. सोमवार शाम को एक ही जगह इतने शो होने के बावजूद हर शो
फुल जा रहा है. सिर्फ इसी बात से यह साबित हो जाता है की संजय लीला भंसाली की
फिल्म को नज़रअंदाज नहीं किया जाता है.
खैर यहाँ तक तो हम सभी एकमत
होंगे. अब आती है फिल्म देखने के बाद मेरी प्रतिक्रिया की. सच कहूँ तो मैंने काफी
अरसे बाद एक ऐसी हिंदी फिल्म देखी है जिसके हर गाने पर मैं तालियाँ बजाते हुये
(क्योंकि मैं सीटी नहीं बजा पता हूँ) भाव विभोर था, कई सारे डायलाग पर “क्या बात”
कहते हुये सराहना की है, कई जगह पर अलग
अलग अभिनेताओं की (विशेषत: रणवीर, दीपिका और सुप्रिया पाठक) से मुग्ध हुआ, एवं इस
तरह के असंख्य पहलुओं ने फिल्म मेरे लिए बहुत ही जोरदार बना दी है. यह तय है की
मैं यह फिल्म कुछैक बार पुन: देखूंगा.
कई सारे दर्शकों एवं
समीक्षकों को फिल्म बहुत लाउड, बहुत अतिश्योक्त लगी. ऐसा भी मानना है की पटकथा,
संवाद एवं चारित्र और बेहतर हो सकते थे. मैं इनसे पूर्णत: सहमत हूँ लेकिन मैं यह
नहीं मानता की इससे यह फिल्म खराब हो गयी.
सबसे पहले बात करें फिल्म
के लाउड और अतिश्योक्त होने की. तो मुझे बतायें कि संजय भंसाली की पहले फिल्म "ख़ामोशी" के अलावा कौन से फिल्म लाउड और अतिश्योक्त नहीं थी. ये उनका सिनेमा है और
वो इसी के लिये जाने जाते हैं. उनके सिनेमा का सौंदर्य ही उसके अतिश्योक्त होने
में है. और फिर हमारा पूरा भारतीय समाज और संस्कृति भी तो ऐसी ही है. अगर आपको इस
फिल्म का अतिश्योक्त होने पर ऐतराज है तो माफ़ कीजिये फिर आपको भारतीय संस्कृति से
ही ऐतराज़ है.
मेरा मानना है की पश्चिमी साहित्य, फ़िल्मों इत्यादि से आजकल हम इतना
ज्यादा रूबरू होते हैं कि हमें वही अपना लगने लगता है. इसमें कोई बुराई नहीं है.
मेरा तो सिर्फ इतना निवेदन है कि ऐसे लोगों की शिकायत वाजिब तब है जब कि वे पहली
बार संजय भंसाली की फिल्म देख रहे हैं. चलिए मान लिया कि आप इस तरह के सिनेमा से
परिचित नहीं हैं. लेकिन जो लोग संजय भंसाली के सिनेमा से वाकिफ होते हुये इस फिल्म
से ऐसी शिकायत कर रहे हैं वे ऐसे लग रहे हैं जैसे शक्कर की मिठास की शिकायत कर रहे
हैं.
अब आती है बात पटकथा, संवाद
एवं चारित्र और बेहतर हो सकते थे. बिलकुल हो सकते थे और फिल्मकार ने अपनी सूझबुझ
के हिसाब से इनको सर्वश्रेष्ठ ही किया है. मुझे भी लगा कि मध्यांतर के बाद पटकथा
उलझ गयी है और पात्र थोड़े कन्फ्यूज़ हो गए हैं. मगर इसके बावजूद फिल्म के पकड कम
नहीं हुई जिसका श्रेय फिल्मकार को जाता है. राम के चारित्र में विरोधाभास
(contradiction) है. एक तरफ तो वह अहिंसावादी है, स्त्रियों की इज्जत करता है,
वहीँ दूसरी ओर वह अपने भाई की फ़िज़ूल की गोलोबारी की नुमाईश पर खुश हो रहा है,
औरतखोर है. तो भाई मेरे, ऐसे विरोधाभास से ही तो मनुष्य बनता है. अगर विरोधाभास
नहीं होते तो वो परवर दिगार नहीं बन जाता.
कई लोगों को संवाद अश्लील
लगे होंगे. यहाँ तक राम और लीला की बेबाक़ चिपटा चिपटी भी कइयों को नागवार हो सकती
है. मैं उन लोगों के असहमति से सहमत हूँ पर पुन: कहूँगा कि इससे यह फिल्म खराब नहीं हो जाती. मैं यह उत्तर
नहीं दे सकता की संजय भंसाली ने ऐसा क्यों चुना पर यह बता सकता हूँ कि यह मुझे
क्यों अच्छा लगा. फिल्म का परिवेश ग्रामीण है जहाँ ऐसी बेबकता सामान्य है. और फिर
आजकल के युवा बातचीत में १० साल पहले के युवाओं जैसे बात नहीं करते हैं. अब केवल
लड़के आपस में गाली का प्रयोग नहीं करते बल्कि अब लड़के लड़की दोनों आपस में ऎसी ही
बेबाक बातें करते हैं. एक स्तर पर ये अच्छा भी है क्योंकि अब लिंगभेद कम होता जा
रहा है. जहाँ तक राम-लीला के कामुक होने की बात है, वे दोनों ही युवा और काफी
बिंदास दिखाए गये हैं. और फिर दोनों जिस सुर में अपनी मित्रता की शुरुआत करते हैं
पूरे समय उन्होंने वही सुर कायम रखा है. फिर सेक्स क्या प्रेम का हिस्सा नहीं है?
तो फिर उन दोनों के बेबाक सेक्सुअलटी के प्रदर्शन में क्या खराबी है?
मुझे तो यह समझ नहीं आता कि
जब अनुराग कश्यप “गैंग्स आफ वासीपुर” में मनोज बाजपई और नवाज़ुद्दीन से ऐसी कामुक
हरक़त करवाते हैं तो यही समीक्षक उसे अतिश्योकिति से सराहते हैं. ऐसा दोहरापन क्यों
?
याद कीजिये आपने कब एक-एक
कलाकार को इतने गरिमामय सौन्दर्य, वेशभूषा, मेकअप वगैरह के साथ पिछली बार देखा था?
कब आपने इतनी बारीकियों के साथ बना हुआ सेट देखा था, कब आपने इतने डिटेल के साथ एक
काल्पनिक जीवन देखा था? कब इतना मधुर संगीत, बेकग्राउंड संगीत के साथ सुना है? कब
मुख्य कलाकारों के साथ सहयोगी कलाकारों ने भी इतना जानदार अभिनय किया है?
और सबसे
ऊपर कब एक फिल्मकार ने अपनी कल्पना से बिना कोई समझोता किये, बाक्स आफिस पर उसके
परिणाम की चिंता किये बगैर फिल्म बनायी है? वह भी तब जबकि उसकी पिछली २ फ़िल्में
फ्लाप थीं.
वर्तमान हिंदी फिल्मों में तो ऐसा कम ही देखने को मिलता है. क्या करन जौहर, रोहित शेट्टी, यशराज बैनर आदि आज ऐसा सिनेमा दे पा रहे हैं?
गौरतलब है कि कुछ समय पहले यशराज बैनर की “इशक़ज़ादे” आयी थी. वो भी शेक्सपियर के “रोमियो – जुलिएट” नाटक पर आधारित थी. मुझे उस फिल्म से सिर्फ परिणति चोपड़ा का अभिनय याद है और कुछ भी नहीं. देखिये रोमियो – जुलिएट जैसी कालजयी कहानियों के नित नए नए adaptation (अनुरूपण) होते रहेंगे. पर इसका मतलब यह नहीं की हम उस नये काम की उसी पुराने क्लासिक के साथ तुलना करते रहें. हर नाटककार, फ़िल्मकार किसी भी क्लासिक को अपने अनुसार निरुपित करता है और करेगा भी. हम लोग महज उसके परिणाम से सहमत / असहमत हो सकते है और कुछ नहीं.
हाँ अंत में मैं सिर्फ यह
और कहना चाहूँगा कि टेक्नालाजी के आसान हो जाने से अब हर कोई हर विषय पर स्वयं को
एक्क्स्पर्ट बताने लगा है. ये तथाकथित विशेषज्ञ विशेषत: किसी बड़े व्यक्ति / कार्य
की आलोचना करने में असीम आनंद पाते हैं. इस परनिंदा में वे यह भूल जाते हैं की वे
मुद्दे से ही भटक चुके है. वैसे भी कहते हैं कला की आलोचना नहीं सराहना होनी
चाहिये.
1 comment:
हमने तो अभी तक फिल्म देखी नहीं है। इसलिए अभी कुछ कह नहीं सकते कि आपकी बात से सहमत हैं या नहीं, मगर हाँ इतना ज़रूर कह सकते हैं कि भंसाली जी की फिल्म का इंतज़ार हमें ज़रूर रहता है। एक"साँवरिया"को छोड़कर हमें उनकी सभी फिल्में बेहद पसंद है। इतनी कि,बार-बार देखने पर भी ऐसा नहीं लगता है कि हटाओ यार यह देखी हुई अब नहीं देखना है।
बाकी फिल्म देखने के बाद दुबारा आयेंगे आपकी पोस्ट पर...
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