यह सामान्य जानकारी है कि हर साल हमारे यहाँ निर्मित ४०० करीब हिन्दी फ़िल्मों में से मुश्किल से ५% यानि २०-२५ फ़िल्में ही हिट हो पाती हैं या यूँ कहा जाये कि घाटे का सौदा नहीं होतीं हैं. फ़िर भी हर साल निर्मित होने वाली फ़िल्मों की संख्या बढ़ती जा रही है. ऐसा क्यों ?
निरंतर घाटा होते हुये भी यह व्यापार हर वर्ष बढ़ता ही जा रहा है. आखिर इसके पीछे कौन सा Economics है ?
जी हाँ फ़िल्में एक सृजनात्मक कार्य होने के बावज़ूद, इसमें लगने वाले अधिक संख्या के धन के कारण इस क्षेत्र में commerce और economics का भी दखल है.
हिन्दी फ़िल्मों को जो झटका TV और internet के आगमन से लगा है, वह अभी तक उससे उबर नहीं पायी है. आप लोगों ने कभी न कभी किसी पुरानी फ़िल्म जैसे की "छोटी सी बात, रजनीगंधा, सावन को आने दो" आदि को देखते हुये सोचा होगा कि आज ऐसी फ़िल्में क्यों नहीं बनती हैं.
इसका एक कारण TV का आगमन है, जिसने लोगों को घर बैठे ही फ़िल्में उपलब्ध करा दी हैं.
मगर फ़िर आप कहेंगे कि TV के आगमन तो सारी दुनिया में हुआ है. फ़िर इससे Hollywood और दक्षिण भारतीय फ़िल्में क्यों नहीं प्रभावित हुईं ?
इसका उत्तर है इन फ़िल्म उद्योगों की व्यापक पहुँच. आप देखते ही होंगे कि कैसे हर साल Hollywood अपनी पहुँच दुनिया के हर कोने तक बढ़ाता ही जा रहा है. उसी प्रकार दक्षिण भारतीय़ सिनेमा में तेलुगु और तमिल सिनेमा भी निरंतर अपनी पहुँच बढ़ाता ही जा रहा है. वे निरंतर नय़ी technology का उपयोग कर, नये-नये theater का निर्माण कर, अधिक से अधिक भाषाओं में अपनी फ़िल्म dub कर उसे अधिकतम लोगों तक पहुँचा रहे हैं.
इसी व्यवस्था के कारण वहाँ ` 175 करोड़ की रजनीकांत अभिनीत फ़िल्म "रोबोट" बन सकती है. और मैं आपको बता दूँ कि सारे trade pundits अभी से ही यह घोषणा कर रहे हैं कि यह फ़िल्म आज तक की सबसे बड़ी super duper hit होने वाली है.
जहाँ वे स्वयं की मौलिक कहानी कहने पर ज़ोर दे रहे हैं, जहाँ वे अपनी फ़िल्मॊं के लिये बड़े से बड़ा बजट रख रहे है और नये-नये प्रयोग कर रहे हैं, वहीं अफ़सोस हिन्दी सिनेमा में ऐसा कुछ नहीं हो रहा है. ऐसा क्यों ?
आखिर जो सिनेमा देश में सबसे बड़ा है, वही सबसे पिछ्ड़ा क्यों है ? उसी में सबसे कम मौलिक कार्य किया जा रहा है, उसी में सबसे ज़्यादा फ़िल्में flop हो रही हैं. आखिर ऐसा क्यों ?
इन सबका जवाब जानने के लिये हमको थोड़ा अतीत में जाना होगा. ७० की सदी में जब हिन्दी सिनेमा की लोकप्रियता सबसे ज्यादा थी, तब के हिन्दी फ़िल्मकारों ने स्वयं को सर्वश्रेष्ठ मान लिया और सभी इस मुग़ालते में जीने लग गये कि we are the best, nobody can beat us. बस जब आप किसी भी क्षेत्र में स्वयं को खुदा समझने लगेंगे तभी से आपका पतन शुरू हो जायेगा.
तब हिन्दी फ़िल्मकारों ने मान लिया कि हम तो इतने बड़े हो चुके हैं कि अब जनता हमारे पास स्वय़ं आयेगी हम क्यों जनता के पास जायें. इसलिये ८० के दशक में आप पायेंगे कि अचानक से नये theater बनना बंद हो गये, जो थे वे भी इस तरह चलाये जाने लगे कि जैसे हम दर्शकों पर कोई एहसान कर रहे हैं. उन theaters रख-रखाव व व्यवस्थापन के स्तर में अचानक कमी आ गयी जिसके कारण आम जनता को बेहद दुख हुआ. बड़े बड़े शहरों के सर्वश्रेष्ठ theaters की दशा ये होने लगी थी कि वहाँ लोग परिवार समेत जाने में हिचकने लगे थे. इसलिये उन लोगों ने TV को मजबूरी में सिनेमा का पर्याय स्वीकार कर लिया.
इसका अपवाद शायद मुंबई के theaters थे जो कि सन २००० तक अपनी शानो शौकत बरकरार रखे हुये थे. पर उनमें से भी ज़्यादातर या तो अब बंद हो गये हैं या फ़िर उनको multiplex में परिवर्तित कर जा चुका है. यह निर्विवाद सच है कि सन ८० से २००० तक हिन्दी भाषी शहरों में फ़िल्म theaters की संख्या में कमी आयी थी.
इसके साथ ही उस दशक में बनने वाली फ़िल्में भी शायद उपरोक्त दंभी फ़िल्मकार ही बना रहे होंगे और उसका असर हम सबने देखा है. मुझे आज भी याद है सुभाष घई ने जब "यादें" फ़िल्म का मुहूर्त लंदन में किया था तो उन्होंने कहा था कि "मैं फ़िल्म NRI audience के लिये बनाना चाहता हूँ क्योंकि ये मुझे डालर और पाउन्ड में पैसा देते हैं. वहीं यू. पी., बिहार के दर्शक चंद रूपयों में फ़िल्म देखते हैं. तो मैं इनके लिये फ़िल्म क्यों बनाऊँ. ?". यहाँ ये बताना ज़रूरी है कि तब से घई साहब जो कि एक समय showman माने जाते थे वे अब एक hit फ़िल्म के लिये तरस रहे हैं.
इस तरह एक ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गयी कि सिनेमाघरॊं की कमी के कारण फ़िल्मों की माँग में बेहद कमी आ गयी जबकि उसकी उत्पादन संख्या निरंतर बढ़ती रही. इसके चलते जो छोटी फ़िल्में बनीं वे सिनेमाघर तक कभी पहुँच ही नहीं पायीं. वे या तो डब्बाबंद हो गयीं या फ़िर जैसे तैसे TV व VDO के जरिये अपने दर्शकों तक पहुँची. इस में कई बेहतरीन, मौलिक किंतु छोटे बजट की फ़िल्मॆं - YMI, आमरस, मिथ्या आदि, कुर्बान हो गयीं.
तब हिन्दी फ़िल्म उद्यॊग ने इस समस्या का अद्भुत हल निकाला - Multiplex. उन्होंने सरकार से सिनेमा को प्रोत्साहन के नाम पर tax holiday ले कर आलीशान mall cum multiplex खड़े कर डाले. जहाँ पहले एक सिनेमाघर होता था, वहाँ अब ४-५ सिनेमाघर हो गये. इस तरह ज़्यादा उत्पन्न हो रहीं फ़िल्मों के लिये ज्यादा सिनेमाघर बन गये.
मगर क्या ये multiplexes खोये हुय़े दर्शकों को वापिस ला सके? जवाब सिर्फ़ एक है - नहीं !
Multiplexes ने निःसंदेह ज्यादा screens मुहय्या करवा दीं पर टिकीट खरीदकर फ़िल्म देखने वालों की संख्या कम कर दीं. मैं अपने जैसे कई फ़िल्म प्रेमियों को जानता हूँ जो single screen theater में लगने वाली हर फ़िल्म देखते थे और हम ऐसा इसलिये कर पाते थे क्योंकि फ़िल्म के टिकीट के भाव हर व्यक्ति की जेब के अनुसार होते थे. ` १० से लेकर ` ६० तक कम से कम ३ दरजे होते थे. मगर multiplexes में अधिकतर टिकीट का मूल्य ` १५० से ` २५० तक होता है. और पहले weekend पर तो यह मूल्य ` २०० से ` ३५० तक हो जाता है. आज मैं एक भी ऐसे फ़िल्म-प्रेमी को नहीं जानता हूँ जो कि इन multiplexes में जाकर हर फ़िल्म देखते हैं. कुछैक हैं जो कि सारी तो नहीं पर सप्ताह की एक फ़िल्म ज़रूर देखते हैं. मगर इन लोगों की संख्या उगलियों पर गिनी जा सकती है.
मैं दावे के साथ कहता हूँ कि अगर सभी multiplex अपने हर hall में आगे की 3 rows को सिर्फ़ ` ५० प्रति सीट करें तो ये सभी seats हमेशा full रहेंगी और multiplexes को houseful की जगह rowful का बोर्ड तो अवश्य लगाना पड़ेगा.
Multiplexes का एक और दुष्प्र्भाव जो हुआ वह है सिनेमा देखने की सामूहिक, लोकतांत्रिक (democratic, communal) भावना का क्षरण (loss).
जहाँ single screen theater में विभिन्न आय वाले लोग अलग - अलग दरजे में ही सही, कम से कम एक साथ फ़िल्म देखते थे, वहीं multiplexes में सिर्फ़ एक जैसी आय व हैसियत वाले व्यक्ति ही फ़िल्म देखते हैं. यह हक़ीक़त cinema की democratic spirit के बिलकुल खिलाफ़ है.