नमस्कार मित्रों, आज फ़िर
कई दिनों के बाद से आपसे मुख़ातिब होने जा रहा हूँ। बहुत दिनों से मैं इसी पसोपेश में था कि आखिर आप लोगों से
क्या जानकारी साझा करूं? नई प्रदर्शित फ़िल्मों की समीक्षा मुझसे पहले आप लोगों तक
कई अन्य लोग पहुंचा ही देते हैं। इसीलिए आपमें से कई मेरी
समीक्षा शायद पढ़ते भी नहीं होंगे। लेकिन कुछैक मित्र हैं जो कि मेरी
समीक्षा न सिर्फ़ पढ़ते हैं बल्कि मुझे उसपर अपनी प्रतिक्रिया से वाकिफ़ भी कराते
रहते हैं ।
आप लोग भी इधर महसूस कर ही रहे होंगे कि विगत कुछ वर्षों से हिन्दी फ़िल्मों की गुणवत्ता सतत गिरती ही जा रही है। इसके कई कारण हैं और इस विषय पर मैं फ़िर कभी लिखूँगा। यहां ये ज़िक्र करने से मेरा मंतव्य केवल इतना बताना था कि इस कारण से मैंने हिन्दी फ़िल्में देखना बहुत ही कम कर दिया है। अब मैं हिन्दी फ़िल्म देखता तभी हूँ जब उसकि सराहना कुछ विशेष मित्रगण न कर दें। और तब तक उस फ़िल्म की समीक्षा लिखने को बहुत देर हो चुकी होती है।
पर मैं आप लोगों को समय समय पर अपने विचार साझा कर बहुत आनन्दित होता हूं और इस तारतम्य को यूं ही कायम भी रखना भी चाहता हूँ । इसलिए कई दिनों की उलझन के बाद मैने ये निर्णय लिया है कि मैं आप लोगों को पहले की भाति फ़िल्म समीक्षा ही भेजूंगा मगर उन फ़िल्मों की जो अमूमन हम थिएटर में देख नहीं पाते हैं और शायद उनकी DVD में हमारी रूचि शायद इसीलिए नहीं होती है क्योंकि उस फ़िल्म के बारे में हम तक कोई जानकारी पहुंच ही नहीं पाती है।
हो सकता है कि मेरी
समीक्षा पढकर आपमें से कुछेक उस फ़िल्म की DVD ही खरीद लें।
तो आज मैं जिस फ़िल्म पर प्रकाश डालना चाहता हूं वह एक वृत्तचित्र (documentary film) है – Nero’s Guest by P. Sainath (नीरो के अतिथि द्वारा पी. साईंनाथ)।
फ़िल्म का YouTube लिन्क नीचे दिया हुआ है:
फ़िल्म पर कुछ लिखने से पहले मैं श्री पी. साईंनाथ का परिचय कराना चाहूंगा। श्री साईंनाथ हमारे देश के वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक हैं। वे “हिन्दू” अखबार के लिए कार्य करते थे। उनकी लिखी एक पुस्तक “Everybody loves a Good Drought” (अच्छा सूखा सबको पसंद आता है) बहुत प्रसिद्ध है। ये पुस्तक पिछले कुछ वर्षों से देश के कुछ भागों में लगातार हो रही किसानों की आत्महत्या के बारे में है। ऐसा कहते हैं कि इस पुस्तक के छपने के बाद ही ये चिंतनीय विषय जन साधारण तक पहुंचा है। इसके पहले ये बात अधिकांश लोगों को पता ही नहीं थी। पूर्व प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह भी इसी पुस्तक के द्वारा इस विषय की गंभीरता समझ पाये थे।
यह फ़िल्म भी एक प्रकार से
उसी पुस्तक का अगला अध्याय है। इस फ़िल्म की संपादिका-दिग्दर्शिका हैं सुश्री दीपा
भाटिया। दीपा जी वरिष्ठ व ख्यात फ़िल्म संपादिका हैं जिनको कई बडी फ़िल्मों के
संपादन का श्रेय जाता है। उनमें उल्लेखनीय है “तारे ज़मीन पर, माय नेम इस खान, स्टेनली का डब्बा, राक आन, स्टूडेन्ट आफ़ द
ईयर, काई पो छे” इत्यादि।
यहां यह भी बताना चाहूंगा कि दीपा जी के पति हैं श्री अमोल गुप्ते, जो कि स्वयं फ़िल्म “स्टेनली का डब्बा”, “हवा-हवाई” के निर्देशक एवं “कमीने” के अभिनेता के रूप में प्रख्यात हैं।
जैसा कि उपरोक्त है कि यह फ़िल्म किसानों की आत्महत्या के लिए जिम्मेवार हालात; इसके प्रति समाज, शासन व राजनेताओं के रवैये एवं मृत किसान के परिजनों की परिस्थिति को परिलक्षित करती है। और वह यह कार्य इतने सटीक तरीके से करती है कि दर्शक को झंझोड डालती है। वह अनायास ही अपने आप से यह प्रश्न कर उठता है कि क्या हम, हमारा समाज वाकई विकसित हो रहा है? अगर यह बात सच है कि “जीवन के हैं तीन निशान, रोटी, कपडा और मकान”; तो फ़िर रोटी के सृजक किसान की ऐसी हालत क्यों है? हम विकास की राह पर ये भूलते जा रहे हैं कि इन्सान बिना कपड़े और मकान के कई दिन रह सकता है लेकिन रोटी के बगैर कुछ दिन भी नहीं।
आप सबसे मेरा निवेदन है कि दिये हुए लिन्क पे जाकर इस फ़िल्म को जरूर देखें और उसे ज्यादा से ज्यादा लोगों को दिखाएं ताकि हम अपने जीवन में किसान के योगदान को सराह सकें।