इस फिल्म से मेरे फिल्म इंस्टिट्यूट पुणे के कई सारे साथी जुड़े हुए
हैं. फिल्म की एडिटर श्वेता मेरी सहपाठिन हैं, फिल्म के निर्देशक विनिल मैथ्यू
मुझसे दो साल सीनियर निर्देशन के छात्र हैं, फिल्म के लेखक हर्षवर्धन कुलकर्णी
मुझसे ३ साल सीनियर एडिटिंग के छात्र हैं, फिल्म के साउंड डिज़ाईनर सुभाष साहू
मुझसे कुछ ९-१० साल सीनियर साउंड रिकार्डिंग एवं साउंड इंजीनियरिंग के छात्र हैं.
फिल्म इंस्टिट्यूट से उत्तीर्ण होने के बाद मैं इन सभी से मुंबई में भी मिलता रहा
हूँ.
मैं यहाँ फिल्म इंस्टिट्यूट का ज़िक्र इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि कई
सालों से फिल्म इंस्टिट्यूट पर एक अभिशाप माना जाता है कि फिल्म इंस्टिट्यूट पुणे
से टेक्नीशियन तो जबर्दस्त निकलते हैं, भले वो सिनेमाटोग्राफी (छायांकन) हो,
एडिटिंग (सम्पादन) या साउंड रेकार्डिंग (ध्वनी अंकन) लेकिन वहां से निर्देशक बहुत
कम ही सफल होते हैं. और चूँकि विनिल फिल्म इंस्टिट्यूट पुणे के उन गिने चुने
निर्देशन छात्रों में हैं जिन्होंने मुंबई फिल्म उद्योग में सफल पदार्पण किया है
इसलिए यहाँ फिल्म इंस्टिट्यूट के अन्य निर्देशन छात्रों का ज़िक्र करना लाज़मी है.
सबसे पहले तो हमें ये तय करना होगा कि क्या हम सिर्फ उस व्यक्ति को ही
सफल फिल्म निर्देशक मानेंगे जिसने मुम्बई फिल्म उद्योग में अपना झंडा गाड़ा है?
क्या सिर्फ एक सफल फीचर फिल्म (किसी भी भाषा) में बना लेने से ही कोई सफल निर्देशक
होगा? क्या वे लोग जो फीचर फिल्मों के अलावा फिल्मों के अन्य प्रकार जैसे
डाक्यूमेंट्री, विज्ञापन फिल्म टेलिविज़न कार्यक्रम आदि बना रहे हैं, वे असफल माने
जायेंगे? या ऐसे निर्देशन छात्र जो कि फिल्म बनाना छोड़कर अलहदा कार्य जैसे शिक्षण,
लेखन, समाजसेवा या व्यापार कर रहे हैं तो क्या वे असफल हैं? मैं ऐसे कई व्यक्तियों
को जानता हूँ और ये भी जानता हूँ कि वे जहां भी हैं बहुत खुश हैं. इन लोगों के
बारे में मैं फिर कभी लिखूंगा. अभी तो मैं सिर्फ ये कहना चाहता हूँ कि व्यक्ति कुछ
भी करे, अगर वह उसमें अपना सर्वश्रेष्ठ दे रहा है और उसे करते हुये खुश है तो वो
मेरी नज़र में सफल है. और यही बात सभी आर्टिस्ट पर लागू है भले वो फिल्मकार हो,
अभिनेता हो, पेंटर, मूर्तिकार, संगीतकार इत्यादि. और इसलिए मैं यह मानता हूँ की इस
तरह से किसी भी संस्थान के छात्रों में भेद करना, बुद्धिमानी कतई नहीं है.


अब हम आ जाते हैं फिल्म की सराहना पर. अब तक तो ये जग जाहिर हो चुका
है कि फिल्म बहुत पसंद की जा रही है और शायद हिट हो चुकी है. अगर आपने भी ये फिल्म
देख ली है तो आप पर भी इसका जादू चल चुका होगा. तो मैं भी फिल्म की तारीफ़ कर समय
नहीं गवाउंगा. अलबत्ता मैं तो ये कहूँगा कि जब मैंने फिल्म के ट्रेलर देखे तो मैं
ज्यादा प्रभावित नहीं हुआ. मुझे ये फिल्म करन जौहर केंप से निकली हुई एक और वो
पंजाबी परिवारों की कहानी लगी थी और गर आप देखें तो फिल्म के गाने तो अभी भी वही
करन जौहर फिल्मों की तरह ही हैं. मुझे विनिल पे बड़ा अचरज हो रहा था कि क्या वो
अपनी पहली फिल्म अच्छे से बनाने के चक्कर में अपनी पहचान ही गँवा बैठा है? लेकिन
खुदा का शुक्र है कि ये सिर्फ मेरी ग़लतफ़हमी ही थी.
फिल्म की सबसे विशेष बात है उसका लेखन उसमें भी विशेषत: स्क्रीनप्ले.
गौर करें कि फिल्म की कहानी में कुछ भी नया नहीं है. एक लड़के की एक लड़की से शादी
होने वाली है और शादी से कुछ दिन पहले उसकी जिंदगी में एक और लड़की आ जाती है.
दोनों एक दुसरे के प्रति आकर्षित भी होने लगते हैं पर निर्णय नहीं ले पा रहे हैं
कि क्या करें. अंत:तोगत्वा ठीक मंडप में लड़का समझ पाता है कि उसका सच्चा जीवनसाथी
कौन है और वो मंडप छोड़ के अपने सच्चे जीवनसाथी के पास चला जाता है. दिल है कि
मानता नहीं, दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे, जाने तू या जाने न जी कितनी ही फ़िल्में
हैं जो इस समय जेहन में आ रही हैं. ये कहानी कभी पुरानी नहीं होने वाली है और उस
पर तब तक फिल्म बनती रहेंगी जब तक मर्द-औरत का रिश्ता है. आप नए समय, नए परिवेश
में इसे कैसे कहते हैं वही मायने करता है.
और यहीं हर्ष के लेखन का जादू है. बताइये कौन सी ऐसी फिल्म थी जिसमें
इतने दिलचस्प और वास्तविक चरित्र हैं जितने इस फिल्म में हैं. भले वह सिद्धार्थ का
मैनेजर है जो तोतला है, उसके माँ -बाप और अन्य रिश्तेदार जो कि यू. पी. लर
सम्भ्रांत ब्राह्मण हैं या परिणिति के परिजन हैं जो कि मुंबई भुलेश्वर के गुजराती
व्यवसायी हैं. इस सबका बोलचाल, लहजा इतना वास्तविक है कि आप उनसे एकदम से जुड़ जाते
हैं. मेरा ख्याल है कि शायद ऋषिकेश मुखर्जी और बासु चटर्जी की फिल्मों के बाद पहली
बार यू. पी. के सम्भ्रांत चरित्रों को फिल्मों में देखा है नहीं तो सब पंजाबी हो
गए थे. इसी तरह से कब हमने किसी IPS अधिकारी को सामान्य पिता की तरह देखा है, याद
नहीं पड़ता.
ये सब कहकर मैं विनिल के काम को कमतर नहीं बना रहा हूँ. ऐसा कभी नहीं होता कि लेखक के काम में निर्देशक का बिलकुल योगदान नहीं होता. और फिर जो भी लेखक ने लिखा उसे न्यापुर्वक परदे पे पेश करना निर्देशक का कार्य है. तो अगर ये फिल्म हमें प्रभावित करती है तो नि:संदेह निर्देशक को श्रेय जाता है.
ये सब कहकर मैं विनिल के काम को कमतर नहीं बना रहा हूँ. ऐसा कभी नहीं होता कि लेखक के काम में निर्देशक का बिलकुल योगदान नहीं होता. और फिर जो भी लेखक ने लिखा उसे न्यापुर्वक परदे पे पेश करना निर्देशक का कार्य है. तो अगर ये फिल्म हमें प्रभावित करती है तो नि:संदेह निर्देशक को श्रेय जाता है.

और इन सबने बल दिया है सिद्धार्थ और परिणिति की अद्भुत जोड़ी को.
सिद्धार्थ जिनको करन जौहर ने “स्टूडेंट आफ द इयर” फिल्म में पेश किया था, उस फिल्म
में ठीक ही लगे थे. मगर इस फिल्म में अपने किरदार की गहराई को बखूबी निभाकर
सिद्धार्थ ने स्वयं को लम्बी रेस का घोड़ा साबित कर दिया है.
परिणिति को तो कहना ही क्या. वे एक नैसर्गिक अभिनेत्री हैं. उनका अभिनय
फिल्म दर फिल्म बेहतर होता जा रहा. अभिनय के अलावा जो बात उन्हें विशेष बनाती है
वो है उनका सौंदर्य. वो पूरी तरह भारतीय दिखती हैं. उनके रूप सौन्दर्य में कहीं भी
विदेशी छाप नहीं दिखती है. कई लोग ये कह सकते हैं कि वो खुबसुरत नहीं है तो मैं
कहूँगा कि यही तो उनका जादू है. वो बिलकुल पड़ोस में रहने वाली लड़की जैसी लगती है,
हम उससे एक अजीब सा जुड़ाव महसूस करते हैं. परिणिति की बहन प्रियंका में भी शुरुआत में
यही बात थी मगर विदेशियों को प्रभावित करने के चक्कर में कहते हैं कि उसने कई सर्जरी
करवा ली जिस कारण अब वो उतनी मोहक नहीं लगती हैं. मुझपे यकीन न हो तो आप प्रियंका
का ये विडिओ देख लें.


