

कई सारे दर्शकों एवं
समीक्षकों को फिल्म बहुत लाउड, बहुत अतिश्योक्त लगी. ऐसा भी मानना है की पटकथा,
संवाद एवं चारित्र और बेहतर हो सकते थे. मैं इनसे पूर्णत: सहमत हूँ लेकिन मैं यह
नहीं मानता की इससे यह फिल्म खराब हो गयी.
सबसे पहले बात करें फिल्म
के लाउड और अतिश्योक्त होने की. तो मुझे बतायें कि संजय भंसाली की पहले फिल्म "ख़ामोशी" के अलावा कौन से फिल्म लाउड और अतिश्योक्त नहीं थी. ये उनका सिनेमा है और
वो इसी के लिये जाने जाते हैं. उनके सिनेमा का सौंदर्य ही उसके अतिश्योक्त होने
में है. और फिर हमारा पूरा भारतीय समाज और संस्कृति भी तो ऐसी ही है. अगर आपको इस
फिल्म का अतिश्योक्त होने पर ऐतराज है तो माफ़ कीजिये फिर आपको भारतीय संस्कृति से
ही ऐतराज़ है.



अब आती है बात पटकथा, संवाद
एवं चारित्र और बेहतर हो सकते थे. बिलकुल हो सकते थे और फिल्मकार ने अपनी सूझबुझ
के हिसाब से इनको सर्वश्रेष्ठ ही किया है. मुझे भी लगा कि मध्यांतर के बाद पटकथा
उलझ गयी है और पात्र थोड़े कन्फ्यूज़ हो गए हैं. मगर इसके बावजूद फिल्म के पकड कम
नहीं हुई जिसका श्रेय फिल्मकार को जाता है. राम के चारित्र में विरोधाभास
(contradiction) है. एक तरफ तो वह अहिंसावादी है, स्त्रियों की इज्जत करता है,
वहीँ दूसरी ओर वह अपने भाई की फ़िज़ूल की गोलोबारी की नुमाईश पर खुश हो रहा है,
औरतखोर है. तो भाई मेरे, ऐसे विरोधाभास से ही तो मनुष्य बनता है. अगर विरोधाभास
नहीं होते तो वो परवर दिगार नहीं बन जाता.
कई लोगों को संवाद अश्लील
लगे होंगे. यहाँ तक राम और लीला की बेबाक़ चिपटा चिपटी भी कइयों को नागवार हो सकती
है. मैं उन लोगों के असहमति से सहमत हूँ पर पुन: कहूँगा कि इससे यह फिल्म खराब नहीं हो जाती. मैं यह उत्तर
नहीं दे सकता की संजय भंसाली ने ऐसा क्यों चुना पर यह बता सकता हूँ कि यह मुझे
क्यों अच्छा लगा. फिल्म का परिवेश ग्रामीण है जहाँ ऐसी बेबकता सामान्य है. और फिर
आजकल के युवा बातचीत में १० साल पहले के युवाओं जैसे बात नहीं करते हैं. अब केवल
लड़के आपस में गाली का प्रयोग नहीं करते बल्कि अब लड़के लड़की दोनों आपस में ऎसी ही
बेबाक बातें करते हैं. एक स्तर पर ये अच्छा भी है क्योंकि अब लिंगभेद कम होता जा
रहा है. जहाँ तक राम-लीला के कामुक होने की बात है, वे दोनों ही युवा और काफी
बिंदास दिखाए गये हैं. और फिर दोनों जिस सुर में अपनी मित्रता की शुरुआत करते हैं
पूरे समय उन्होंने वही सुर कायम रखा है. फिर सेक्स क्या प्रेम का हिस्सा नहीं है?
तो फिर उन दोनों के बेबाक सेक्सुअलटी के प्रदर्शन में क्या खराबी है?


याद कीजिये आपने कब एक-एक
कलाकार को इतने गरिमामय सौन्दर्य, वेशभूषा, मेकअप वगैरह के साथ पिछली बार देखा था?
कब आपने इतनी बारीकियों के साथ बना हुआ सेट देखा था, कब आपने इतने डिटेल के साथ एक
काल्पनिक जीवन देखा था? कब इतना मधुर संगीत, बेकग्राउंड संगीत के साथ सुना है? कब
मुख्य कलाकारों के साथ सहयोगी कलाकारों ने भी इतना जानदार अभिनय किया है?



हाँ अंत में मैं सिर्फ यह
और कहना चाहूँगा कि टेक्नालाजी के आसान हो जाने से अब हर कोई हर विषय पर स्वयं को
एक्क्स्पर्ट बताने लगा है. ये तथाकथित विशेषज्ञ विशेषत: किसी बड़े व्यक्ति / कार्य
की आलोचना करने में असीम आनंद पाते हैं. इस परनिंदा में वे यह भूल जाते हैं की वे
मुद्दे से ही भटक चुके है. वैसे भी कहते हैं कला की आलोचना नहीं सराहना होनी
चाहिये.