कुछ दिनों पहले मैंने “सिंघ साहब द ग्रेट” फिल्म देखी. मैं यहाँ बताना चाहूँगा कि मैं निर्देशक अनिल शर्मा का प्रशंसक हूँ. उन्होंने कई अच्छी फिल्में बनायी हैं जैसे कि श्रद्धांजलि, हुकुमत, अपने और ग़दर. साथ साथ मैं सन्नी देओल का भी प्रशंसक हूँ.
तो जब इस फिल्म में इन दोनों कलाकारों ने पुन: साथ काम किया तो मेरा देखना तो लाजमी ही था.
फिल्म की कहानी है एक ईमानदार कलेक्टर की जो अपना कर्तव्य निभाते हुये खलनायक के हाथों अपनी पत्नी खो देता है. साथ साथ खलनायक उस पर एवं उसके सहयोगी ५ पुलिस अफसरों पर रिश्वत लेने का आरोप लगा कर उनको १६ साल की जेल करवा देता है. कलेक्टर साहब को अच्छे चाल चलन के कारण राज्यपाल ७ साल बाद ही रिहा कर दिया जाता है. अपने जेलर मित्र की प्रेरणा से और अपनी स्वर्गीय पत्नी की इच्छानुसार कलेक्टर साहब बदला लेने के बजाय बदलाव के रस्ते पर चल पड़ते हैं लेकिन छद्म नाम “सिंघ साहब” के साथ अपने आपको सरदार बना कर. उनके द्वारा किये जा रहे समाज कल्याण के कारण बहुत विख्यात हो चुके हैं और उनको खलनायक के शहर में भी बदलाव के लिये निमंत्रित किया जाता है. इस कारण उनका पुन: खलनायक से टकराव होता है. काफी खून खराबे के बाद सिंघ साहब की महानता से खलनायक का ह्रदय परिवर्तन हो जाता है और वो अपने गुनाह कुबूल कर लेता है. इस से सिंघ साहब से बाकी ५ साथियों को भी रिहा कर दिया जाता है. साथ ही वो अपनी ज़्यादातर दौलत समाज कल्याण कार्यों हेतु दान कर देता है. और सिंघ साहब अपने बदलाव के रास्ते पर आगे निकल पड़ते हैं.
इस कहानी ने मुझे इतना उत्सुक बना दिया कि बता नहीं सकता. सन्नी देओल जो अपने ढाई किलो के हाथ के लिए जाने जाते हैं, वो ये गांधीवादी सिंघ साहब बन कर कैसे लगेंगे ? फिल्म के ट्रेलर में तो खूब खून खराबा दिखाया जा रहा है पर कहानी कुछ और कह रही है. और बस यहीं ये फिल्म मुंह के बल गिर गयी. अरे जब आप सन्नी देओल की ही-मेन छवि को ही भुनाना चाहते हैं तो फिर उस पर ये गांधी और विवेकानंद का पर्दा क्यों ? जब आपको एक्शन दिखाना है और हमको भी तालियों और सीटियों के साथ उसे ग्रहण करना है तो फिर शर्म कैसी?
मगर कुछ हट कर करने की कोशिश में फिल्म के हालत ऐसी हो गयी जैसे “भानमती का कुनबा”. जानकारी हेतु बतला दूँ कि कहावत है “ भानमती ने कुनबा जोड़ा, कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा.”
मुझे डेविड धवन जी ने एक बात सिखाई है जो उन्होंने स्वयं हिंदी सिनेमा के कालजयी निर्देशक मनमोहन देसाई जी के किसी इंटरव्यू में पढ़ी थी. “एक बार आपने फिल्म में जो सुर लगा दिया, पूरी फिल्म उसी सुर में ख़त्म करनी पड़ेगी. अगर फिल्म के बीच आप अपना सुर बदलोगे तो पिट जाओगे.”
मतलब यह कि अगर आप एक बार अपने सुधि दर्शकों को कल्पना लोक में ले गए हो जहाँ के नियम कायदे आपके अपने बनाए हुये हैं तो फिर उसी सैर में आप उनको दूसरे लोक में नहीं ले जा सकते. दर्शक स्वयं को ठगा हुआ महसूस करते हैं और आप को रिजेक्ट कर देते है.
आप खुद ही इस कथन की सच्चाई परख सकते हैं. यह हर कालजयी, अच्छी फिल्म / कहानी पर लागू होता है. अभी पिछले सप्ताह रिलीज़ हुई “गोलियों की रासलीला : राम लीला” इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है.
दर्शक आपकी कल्पना से असहमत हो सकते हैं पर वो उसको खराब नहीं बोल सकते है. इस फिल्म को जो बुराइयाँ मिल रही हैं वो इसलिए कि आजकल हम लोग असहमति पर सहमत होना भूल गए है. तो जब भी कोई किसी से असहमत होता है तो वो उसे पूरी तरह नक़ार देता है जो की समाज के विकास के प्रतिकूल है.
खैर वापस सिंघ साहब पर आते हैं. जैसा कि मैंने ऊपर लिखा सर्वप्रथम तो कहानी में ही काफी कान्फ्लिक्ट है. फिर पटकथा और डायलाग पर भी कोई विशेष मेहनत नहीं की गयी. कुछैक गाने जो की आइटम नंबर हैं ठीक हैं मसलन “कल से दारु बंद” और “कत्था लगा के”.
अन्य कास्टिंग में अच्छे अच्छे कलाकार जैसे यशपाल शर्मा, मनोज पाहवा, जानी लीवर आदि कमजोर पटकथा के कारण कुछ भी नहीं कर पाये हैं. सन्नी देओल की पत्नी के रूप में नयी कलाकारा उर्वशी रौतेला हैं जो कि काफी सुन्दर और आत्मविश्वास से भरी लगीं लेकिन उनकी और सन्नी की जोड़ी बेमेल ही दिखी. उम्र का फर्क सम्भालने के लिए २-३ बार सन्नी से कहलवाया गया है कि चाचा बोला था कि उम्र का फर्क ज्यादा है, मत कर शादी.
कुल मिला कर फिल्म में मजा
नहीं आया. लेकिन फिर भी इसके जमीन से जुड़े होने के कारण और सन्नी देओल – अनिल
शर्मा के साथ होने के कारण फिल्म के प्रति एक उत्साह है जो कि सप्ताहांत के बाद
ख़त्म हो जायेगा. अगर फिल्म देख भी लें तब भी सिंघ साहब ग्रेट नही बनेंगे.