Monday, September 20, 2010

हिन्दी सिनेमा - वर्तमान परिदृश्य - भाग १



वैसे तो आप लोगे मेरे बारे में जानते ही हैं कि मैं मुंबई में हिन्दी फ़िल्म उद्योग में बतौर editor काम कर रहा हूँ. Editing के अलावा मुझे फ़िल्मों के व्यवसायिक पहलू के बारे में जानने की काफ़ी उत्सुकता है. इसलिये मैंने कुछैक फ़िल्में बतौर Executive Producer या Associate Director भी की हैं. फ़िर पिछ्ला १ साल मंदी के चलते मैंने अपने मित्र साईं कबीर के साथ बतौर Associate writer भी कार्य किया है. जिन फ़िल्मों से मैं जुड़ पाया वो हैं - ह्ल्ला, Leaving Home- Life and music of Indian Ocean और सोच लो. इसके अलावा २-१ फ़िल्में अभी निर्माणाधीन हैं. उनके बारे में फ़िर कभी. इन सब अनुभवों के चलते मुझे थोड़ा बहुत ज्ञान हुआ है कि आज के हिन्दी फ़िल्म उद्योग की हक़ीक़त क्या है.

यह सामान्य जानकारी है कि हर साल हमारे यहाँ निर्मित ४०० करीब हिन्दी फ़िल्मों में से मुश्किल से ५% यानि २०-२५ फ़िल्में ही हिट हो पाती हैं या यूँ कहा जाये कि घाटे का सौदा नहीं होतीं हैं. फ़िर भी हर साल निर्मित होने वाली फ़िल्मों की संख्या बढ़ती जा रही है. ऐसा क्यों ?

निरंतर घाटा होते हुये भी यह व्यापार हर वर्ष बढ़ता ही जा रहा है. आखिर इसके पीछे कौन सा Economics है ?

जी हाँ फ़िल्में एक सृजनात्मक कार्य होने के बावज़ूद, इसमें लगने वाले अधिक संख्या के धन के कारण इस क्षेत्र में commerce और economics का भी दखल है.

हिन्दी फ़िल्मों को जो झटका TV और internet के आगमन से लगा है, वह अभी तक उससे उबर नहीं पायी है. आप लोगों ने कभी न कभी किसी पुरानी फ़िल्म जैसे की "छोटी सी बात, रजनीगंधा, सावन को आने दो" आदि को देखते हुये सोचा होगा कि आज ऐसी फ़िल्में क्यों नहीं बनती हैं.


इसका एक कारण TV का आगमन है, जिसने लोगों को घर बैठे ही फ़िल्में उपलब्ध करा दी हैं.

मगर फ़िर आप कहेंगे कि TV के आगमन तो सारी दुनिया में हुआ है. फ़िर इससे Hollywood और दक्षिण भारतीय फ़िल्में क्यों नहीं प्रभावित हुईं ?

इसका उत्तर है इन फ़िल्म उद्योगों की व्यापक पहुँच. आप देखते ही होंगे कि कैसे हर साल Hollywood अपनी पहुँच दुनिया के हर कोने तक बढ़ाता ही जा रहा है. उसी प्रकार दक्षिण भारतीय़ सिनेमा में तेलुगु और तमिल सिनेमा भी निरंतर अपनी पहुँच बढ़ाता ही जा रहा है. वे निरंतर नय़ी technology का उपयोग कर, नये-नये theater का निर्माण कर, अधिक से अधिक भाषाओं में अपनी फ़िल्म dub कर उसे अधिकतम लोगों तक पहुँचा रहे हैं.


आज भी पूरे हिन्दुस्तान के ५०% से भी अधिक film theaters दक्षिण भारत के केवल ४ प्रदेशों में है. और शेष भारत के मुक़ाबले वहाँ आज भी अधिक film theaters का निर्माण हो रहा है. क्या आपको पता है कि इन ४ दक्षिण भारतीय प्रदेशों में आज भी किसी भी film theater में सर्वाधिक ticket price केवल ` 100/- है. वहाँ पर ticket price इससे ज्यादा रखना गैर कानूनी है. इतना ही नहीं दक्षिण भारतीय सिनेमा की pirated copy मिलना लगभग असंभव है. क्योंकि प्रथमत: तो वहाँ piracy करते हुये पकड़े जाने पर ३ महीने की सज़ा का प्रावधान है. यह वहाँ non-bailable offense है.
दूसरा कारण वहाँ के fans group का सक्रिय होना है. यह fan clubs सीधे ही अपने चहेते फ़िल्म सितारे व उसके फ़िल्म निर्माता के संपर्क में होते हैं. कहीं भी अगर उनको कहीं से भी जरा सी भनक पड़ जाती है कि उनके क्षेत्र में कोई उनके चहेते फ़िल्मकार की फ़िल्म की piracy कर रहा है, तो वे तुरंत वहाँ धावा बोलकर सभी pirated copies नष्ट तो करते ही हैं, साथ साथ वे उस व्यापारी को मुँह काला कर पुलिस में भी दे देते हैं.

इसी व्यवस्था के कारण वहाँ ` 175 करोड़ की रजनीकांत अभिनीत फ़िल्म "रोबोट" बन सकती है. और मैं आपको बता दूँ कि सारे trade pundits अभी से ही यह घोषणा कर रहे हैं कि यह फ़िल्म आज तक की सबसे बड़ी super duper hit होने वाली है.



जहाँ वे स्वयं की मौलिक कहानी कहने पर ज़ोर दे रहे हैं, जहाँ वे अपनी फ़िल्मॊं के लिये बड़े से बड़ा बजट रख रहे है और नये-नये प्रयोग कर रहे हैं, वहीं अफ़सोस हिन्दी सिनेमा में ऐसा कुछ नहीं हो रहा है. ऐसा क्यों ?

आखिर जो सिनेमा देश में सबसे बड़ा है, वही सबसे पिछ्ड़ा क्यों है ? उसी में सबसे कम मौलिक कार्य किया जा रहा है, उसी में सबसे ज़्यादा फ़िल्में flop हो रही हैं. आखिर ऐसा क्यों ?

इन सबका जवाब जानने के लिये हमको थोड़ा अतीत में जाना होगा. ७० की सदी में जब हिन्दी सिनेमा की लोकप्रियता सबसे ज्यादा थी, तब के हिन्दी फ़िल्मकारों ने स्वयं को सर्वश्रेष्ठ मान लिया और सभी इस मुग़ालते में जीने लग गये कि we are the best, nobody can beat us. बस जब आप किसी भी क्षेत्र में स्वयं को खुदा समझने लगेंगे तभी से आपका पतन शुरू हो जायेगा.

तब हिन्दी फ़िल्मकारों ने मान लिया कि हम तो इतने बड़े हो चुके हैं कि अब जनता हमारे पास स्वय़ं आयेगी हम क्यों जनता के पास जायें. इसलिये ८० के दशक में आप पायेंगे कि अचानक से नये theater बनना बंद हो गये, जो थे वे भी इस तरह चलाये जाने लगे कि जैसे हम दर्शकों पर कोई एहसान कर रहे हैं. उन theaters रख-रखाव व व्यवस्थापन के स्तर में अचानक कमी आ गयी जिसके कारण आम जनता को बेहद दुख हुआ. बड़े बड़े शहरों के सर्वश्रेष्ठ theaters की दशा ये होने लगी थी कि वहाँ लोग परिवार समेत जाने में हिचकने लगे थे. इसलिये उन लोगों ने TV को मजबूरी में सिनेमा का पर्याय स्वीकार कर लिया.

इसका अपवाद शायद मुंबई के theaters थे जो कि सन २००० तक अपनी शानो शौकत बरकरार रखे हुये थे. पर उनमें से भी ज़्यादातर या तो अब बंद हो गये हैं या फ़िर उनको multiplex में परिवर्तित कर जा चुका है. यह निर्विवाद सच है कि सन ८० से २००० तक हिन्दी भाषी शहरों में फ़िल्म theaters की संख्या में कमी आयी थी.

इसके साथ ही उस दशक में बनने वाली फ़िल्में भी शायद उपरोक्त दंभी फ़िल्मकार ही बना रहे होंगे और उसका असर हम सबने देखा है. मुझे आज भी याद है सुभाष घई ने जब "यादें" फ़िल्म का मुहूर्त लंदन में किया था तो उन्होंने कहा था कि "मैं फ़िल्म NRI audience के लिये बनाना चाहता हूँ क्योंकि ये मुझे डालर और पाउन्ड में पैसा देते हैं. वहीं यू. पी., बिहार के दर्शक चंद रूपयों में फ़िल्म देखते हैं. तो मैं इनके लिये फ़िल्म क्यों बनाऊँ. ?". यहाँ ये बताना ज़रूरी है कि तब से घई साहब जो कि एक समय showman माने जाते थे वे अब एक hit फ़िल्म के लिये तरस रहे हैं.



सन १९८८ में सिर्फ़ २ फ़िल्म hit हुई थीं "क़यामत से क़यामत तक और तेजाब”. शेष सारी फ़िल्मों का सूपड़ा साफ़ हो गया था. यह दौर भी सन ९५-९६ तक चला "जब हम आपके कौन" ने सफ़लता के अप्रतिम झंडे गाड़ कर दर्शकों को वापिस theater में खींचा. पर तब तक अधिकांश theater या तो दम तोड़ चुके थे या मृत्युशैय्या पर थे.



इस तरह एक ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गयी कि सिनेमाघरॊं की कमी के कारण फ़िल्मों की माँग में बेहद कमी आ गयी जबकि उसकी उत्पादन संख्या निरंतर बढ़ती रही. इसके चलते जो छोटी फ़िल्में बनीं वे सिनेमाघर तक कभी पहुँच ही नहीं पायीं. वे या तो डब्बाबंद हो गयीं या फ़िर जैसे तैसे TV VDO के जरिये अपने दर्शकों तक पहुँची. इस में कई बेहतरीन, मौलिक किंतु छोटे बजट की फ़िल्मॆं - YMI, आमरस, मिथ्या आदि, कुर्बान हो गयीं.


तब हिन्दी फ़िल्म उद्यॊग ने इस समस्या का अद्भुत हल निकाला - Multiplex. उन्होंने सरकार से सिनेमा को प्रोत्साहन के नाम पर tax holiday ले कर आलीशान mall cum multiplex खड़े कर डाले. जहाँ पहले एक सिनेमाघर होता था, वहाँ अब ४-५ सिनेमाघर हो गये. इस तरह ज़्यादा उत्पन्न हो रहीं फ़िल्मों के लिये ज्यादा सिनेमाघर बन गये.

मगर क्या ये multiplexes खोये हुय़े दर्शकों को वापिस ला सके? जवाब सिर्फ़ एक है - नहीं !

Multiplexes ने निःसंदेह ज्यादा screens मुहय्या करवा दीं पर टिकीट खरीदकर फ़िल्म देखने वालों की संख्या कम कर दीं. मैं अपने जैसे कई फ़िल्म प्रेमियों को जानता हूँ जो single screen theater में लगने वाली हर फ़िल्म देखते थे और हम ऐसा इसलिये कर पाते थे क्योंकि फ़िल्म के टिकीट के भाव हर व्यक्ति की जेब के अनुसार होते थे. ` १० से लेकर ` ६० तक कम से कम ३ दरजे होते थे. मगर multiplexes में अधिकतर टिकीट का मूल्य ` १५० से ` २५० तक होता है. और पहले weekend पर तो यह मूल्य ` २०० से ` ३५० तक हो जाता है. आज मैं एक भी ऐसे फ़िल्म-प्रेमी को नहीं जानता हूँ जो कि इन multiplexes में जाकर हर फ़िल्म देखते हैं. कुछैक हैं जो कि सारी तो नहीं पर सप्ताह की एक फ़िल्म ज़रूर देखते हैं. मगर इन लोगों की संख्या उगलियों पर गिनी जा सकती है.

मैं दावे के साथ कहता हूँ कि अगर सभी multiplex अपने हर hall में आगे की 3 rows को सिर्फ़ ` ५० प्रति सीट करें तो ये सभी seats हमेशा full रहेंगी और multiplexes को houseful की जगह rowful का बोर्ड तो अवश्य लगाना पड़ेगा.

Multiplexes का एक और दुष्प्र्भाव जो हुआ वह है सिनेमा देखने की सामूहिक, लोकतांत्रिक (democratic, communal) भावना का क्षरण (loss).

जहाँ single screen theater में विभिन्न आय वाले लोग अलग - अलग दरजे में ही सही, कम से कम एक साथ फ़िल्म देखते थे, वहीं multiplexes में सिर्फ़ एक जैसी आय व हैसियत वाले व्यक्ति ही फ़िल्म देखते हैं. यह हक़ीक़त cinema की democratic spirit के बिलकुल खिलाफ़ है.


एक और चीज़ जो हिन्दी सिनेमा के पतन के लिये जिम्मेवार है वह है satellite TV का प्रसार. जहाँ पहले किसी भी कस्बे, गाँव में जब भी फ़िल्म पहुँचती थी उसको बिलकुल नई फ़िल्म की तरक लोग तत्परता से देखते थे. वहीं अब satellite TV पर फ़िल्म के promos और trailers की निरंतर उपलब्धता से हर गाँव, हर कस्बे में यह पता रहता है कि यह फ़िल्म कब रिलीज़ होने वाली है. और सभी सामान्य जनता के जैसे इन गाँव, कस्बों में भी लोग फ़िल्म पहले दिन ही देख लेना चाहते हैं. और जब उनको वह फ़िल्म अपने पास के सिनेमाघर (जो कि नदारद है) में नहीं मिलती तो वे piracy copy खरीद कर अपनी कुतुहूल शांत करते हैं.


तो भाई साहब हिन्दी भाषी दर्शक के लिये या तो फ़िल्म उनकी पहुँच से बाहर है या फ़िर उनकी जेब से बाहर है.

तो ऐसी परिस्थिति में कोई भी व्यक्ति क्या करेगा ?

चोरी... जी हाँ चोरी.


इसके अलावा क्यों Hindi cinema quality के स्तर पर गिर रहा है, इसके चर्चा हम अगली post में करेंगे.

11 comments:

नवीन said...

बहुत खुब लिखा है आपने

Patali-The-Village said...

बहुत अच्छे...

gour abhishek said...

good one
bt you have to agree that now those who are really interestedd in watching the movie are goin and watching them.
secondly it will ensure quality movie because movies with poor film reviews will not attract audience

Lastly these are multiplex theatres only who have attracted the audience back to cinema hall

Sourabh said...

यहाँ में एक और बात पे आपकी प्रतिक्रिया जानना चाहूँगा की कहीं ना कहीं आज फिल्म से ज्यादा सितारे को महत्व दिया जा रहा हैं, आज फिल्म की आधी से ज्यादा कीमत सितारे को दी जाती हैं
आज अक्षय कुमार ४० करोड़ लेते हैं और फिल्म का टोटल बजट ६० करोड़ होता हैं और फिल्म २५ करोड़ का व्यवसाय करती हैं तो इससे फिल्म की नाकामयाबी कहें या सितारे की...

Sourabh said...

@ abhishek- साहब अभी हम जैसे दीवाने भी हैं जिनकी जेब की पहुच में अगर फिल्म हो तो हर फिल्म को सिनेमा घर में ही जा कर देखे...

Chaya Panwar said...

आपने सिनेमा के रहस्य को बखूबी उजागर किया है। धन्यवाद!

Pallavi saxena said...

बहुत अच्छा और काफी हद तक सही लिखा है आप ने आज सच मैं सिनेमा घरों का यही हाल है और वो आपने जो बात कही है ना की परिवार के साथ जाकर फिल्म देखना सच मैं बहुत मुश्किल होगया है खास कर भोपाल के कुछ एक सिनेमा घरों मै मैंने खुद ये बात महसूस की है और मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ , शायद यही एक मात्र कारण है कि लोग भले ही हफ्ते या महीने मैं एक फिल्म देखें मगर वो multiplex में जाकर देखना ज्यादा उचित समझते है. मैं सौरभ की बात से सहमत हूँ, यदि Multiplex Theater के ticket के दाम कम हो जाये तो मैं भी हर वो फिल्म जो मुझे पसंद हो उसे सिनिमा घर मैं जाकर ही देखना पसंद करूंगी और दूसरी वो बात जो उसने कही है कि आज कल फिल्म से ज्यादा सितारों का बोल बाला है यह बात भी लगभग कहीं ना कहीं सच ही है लोग यह सोच कर फिल्म देखने नहीं जाते की फिल्म कैसी होगी बल्कि यह सोच कर जाते है की यह आमिर की फिल्म है तो यह definitely अच्छी ही होगी....फिल्म story के दम पर कम सितारे के नाम पर ज्यादा चलती है या फ्लॉप होती है इसलिए भी शायद छोटे बजट की फिल्मों के trailer या Promo तक पर लोग ध्यान नहीं देते ... मैंने आमिर खान का वक्तव्य भी सुना था जिसमे उसने खुद कहा था कि फिल्म रिलीज़ होने के बाद कुछ दिन लोग सिर्फ हीरो के नाम पर फिल्म देखने जाते हैं, बाद मैं अगर कहानी अच्छी होती है तब लोग फिल्म के नाम पर जाते हैं.

मगर आप ने जो लिखा है वो सच मैं बहुत अच्छा लिखा है keep writing ....i like it . काफी सरल भाषा मैं आप ने अपनी बात लोग तक पहुंचाई है

अजय कुमार said...

हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें

NIMISH G said...

आप सभी को धन्यवाद जो कि आपने मेरे इस प्रयास को सराहा.
इस blog जरिये मेरा सिर्फ़ एक ही ध्येय है कि एक स्वस्थ परिचर्चा शुरू करना. और मुझे लगता है कि धीरे धीरे मैं अपना लक्ष्य हासिल कर रहा हूँ.
@Sourabh: जब से फ़िल्मों में star system आया है, तभी से फ़िल्म के कुल बजट में से ५०% राशि केवक कुछ लोगों की salary में जाती है. फ़िर वे चाहे सिर्फ़ अभिनेता हो, संगीतकार हो या निर्देशक.अब यह आप पर है कि आप फ़िल्म के असफ़ल होने को किसे जिम्मेवार मानते हैं?
@Abhishek: मैं आपसे सहमत नहीं हूँ कि अब केवल genuine patrons ही फ़िल्म देखते हैं. हाँ यह कह सकते हैं कि अब जितने फ़िल्म देखते हैं उनमें अधिकांश genuine patrons हैं. पर सभी genuine patrons तो multiplex में फ़िल्म नहीं देख पा रहे हैं जैसे कि सौरभ और मैं भी.

खबरों की दुनियाँ said...

सुन्दर अभिव्यक्ति ,शुभ कामनाएं । कुछ हट कर खबरों को पढ़ना चाहें तो जरूर पढ़े - " "खबरों की दुनियाँ"


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संगीता पुरी said...

हिंदी ब्‍लॉग जगत में आपका स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!